शनिवार, 15 दिसंबर 2018

सुबह अब नहीं होती

सर्दियां शुरू हो चुकी है
टुकड़ा धूप का रोज गिरता है
टैरेस पर रखी है कुर्सी
मुंडेर पर फुदकती हैं चिड़ियाएं
प्रतिदिन पानी पी रहे हैं गमलों में लगे पौधे।
चाय जब तब बन रही है
नाश्ते में दलिया भी रोज बनता है
तेल मालिश की शीशी यथावत रखी है।
हाँ, अब अखबार कोई नहीं लाता
कुर्सी पर नहीं बैठता कोई
कोई चिड़ियाओं को नहीं निहारता
वो गिर रहा धूप का मखमली टुकड़ा
व्यर्थ बह जाता है
स्नान धूप का नहीं करता कोई।
चाय में स्वाद नहीं और न ही
दलिया में मलाई डाली जाती है अब।
सचमुच पापा
आपकी सुबह तो रोज होती है मगर
बिना आपके हमारी सुबह अब नहीं होती।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/12 दिसम्बर 2018】

पापा के रहते

तू जल ले रावण
जीत लिया है तुझे
मेरे पापा के रहते ही।
अब न वो दशहरा है 
कि पापा संग जाऊं
और आतिशबाजी के साथ
फूटते रावण को देखूँ
लौटूँ तो सोना-चांदी लेकर।
परंपराएं हो चुकी पूर्ण
कि दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती थी
माँ-बहन ,
हाथ में आरती की लिए थाली और
लगाती थी मस्तक पर रोली का टीका।
कितना उत्साह और कितनी ऊर्जा
भर लेता था अपनी देह में
चरणस्पर्श के साथ ही..
-
अब तू जल ले रावण
जैसा हो जलना।
कि पिता साथ नहीं मेरे
कि उत्सव, त्यौहार ,पर्व
का वो आनन्द मिले
या झूम सकूं मैं
बेफिक्र ।
हाँ, विजयादशमी होगी
हाँ, ठीक ठीक वैसा ही सबकुछ होगा
जैसा होता आया है
जैसी परंपरा है
जैसा इतिहास है
सबकुछ में होऊंगा मैं भी
निभाउंगा परम्परा
और मनाऊंगा उत्सव ..
कि
कैलेंडर की तारीख है जैसे
खिसकती रहती है
और साल दर साल वो टँगता रहता है
जैसे सारे तीज-त्योहारों की तरह
दीवारों पर।
कि इस याद को
समझ का कोई शब्द नहीं बखान सकता।
कि कौन जान सकता है
होने - न होने के
इन एकांत, एकाकी
खामोश दिनों को..।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18अक्टूबर2018】

रविवार, 2 सितंबर 2018

कितने लड़े बिना हार रहे हैं..

मैं विधाता से लड़ न सका
जबकि लड़ना था ।
उसने पेश की थी चुनौती
और ललकारा था मुझे।
मैं अब तक की पूजा पाठों के
मायाजाल में ऐसा लिप्त रहा कि
उसकी शक्ति का प्रतिकार तक नहीं कर पाया।
ये उसका ही तो भ्रमफन्दा था जो
मेरे गले में पड़ा और मैं
उसके विधान को स्वीकार कर उसे ही पुकारता रहा।
इस उम्मीदों पर कि
धरती के देव चिकित्सक बचा लेंगे पिता को।
ये युद्ध था
जो मैं लड़े बिना हार गया ..
कितने लड़े बिना हार रहे हैं..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /02 सितंबर/2018)

सोमवार, 2 जुलाई 2018

टुकड़ा टुकड़ा डायरी का 2 जून

दुनिया ठीक ठीक वैसी ही है
जैसी होती है ..
उसे होनी ही है
आज के दिन भी ...
किन्तु 
माँ दुनिया जैसी नहीं है
इसलिए वैसी ही नहीं हैं
जैसी वो रहती थी आज के दिन ..
---
क्या कहीं होंगे पिता ?
क्या देख पा रहे होंगे ?
बरसो बरस साथ रहने के बाद
अकेली हुई माँ को
कम अज कम आज
पहली बार
अपनी विवाह वर्षगाँठ पर??
----
बारिश बन आए तो थे
जब कड़की थी बिजलियाँ
गरजे घुमड़े थे बादल
मैंने किया था महसूस ...
पिता को भी
और माँ के नितांत अकेलेपन की
उस असह्य स्मरण वेदना को भी ..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी का 2 जून)

जिसके लिए ही हो तुम

मैं नहीं लिखता
लिख नहीं पाता
लिख ही नहीं सकता
क्योंकि वे शब्दो में समाते नहीं
और न ही मेरी भावनाएं पूर्ण हो पाती है ।
मैं अक्सर छोड़ देता हूँ दिन को
उसके अपने हाल पर।
और बैठक में रखी
कुर्सी पर बैठ कर
रात कर देता हूँ ।
जिस पर बैठा करते थे वो घण्टो
कुछ रचते , कुछ बसते ।
मैं साँसों में भरता हूँ उन्हें
दिल में उतारता हूँ
और चुपचाप गीली आँखों को पोंछते हुए उठ खड़ा होता हूँ
अंतरात्मा में उनकी उस आवाज़ के साथ
कि
उठो!
जगत तुम्हारा इन्तजार करता है
कि जिसके लिए ही हो तुम..

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

मेरी स्मृतियों के लिए

छुट्टियां मिलना और छुट्टियां लेने में अंतर् होता है। मिलना संस्था के कैलेंडर पर टंगा रहता है , वर्षभर में एकाध। किन्तु छुट्टियां लेना हमेशा बहुत कशमकश , जद्दोजहद वाला मामला होता है। नौकरी में सबके लिए ही छुट्टियां लेना विकट समस्या होती है। बहरहाल, एक तो अपने कार्य में मुझे आनंद प्राप्त होता था और वो सर्वोपरि था दूसरे छुट्टियां लेने का मेरा एकमात्र मकसद होता था कि घर दौड़ कर चला जाऊं , माता-पिता के पास। मैंने अपने नौकरी वाले दिनों में जितनी भी छुट्टियां ली वो सारी की सारी माता-पिता के संग रहकर व्यतीत की। मुझे कहीं और जाना कभी नहीं भाया और न चाहा। काम के सिलसिले में जरूर अतिरिक्त भ्रमण हुए किन्तु मेरे लिए छुट्टियां मतलब माता-पिता के पास ही होना होता था। छुट्टियां लेने के लिए जद्दोजहद, मिल जाए तो गुदगुदी और जल्द भागकर घर जाने की उत्कंठा वाले दिन कितने सुनहरे होते थे , ट्रेन की रिजर्वेशन न होने के बावजूद जनरल की भीड़ में घुसना या बस से टुकड़े टुकड़े सफर कर पहुंचना , मुम्बई से माता-पिता तक पहुंचने के बीच वाले हर क्षण को जैसे शीघ्र व्यय कर लूँ , उड़ जाऊं और जल्द से जल्द पहुंच जाऊं घर जैसे उतावलेपन का दौर भी कितना अनोखा और अद्भुत रहता था। कितनी सारी मानसिक योजनाएं बनती थी। पिता के साथ रहूँगा , माँ के हाथों का भोजन लूँगा, ये करूंगा-वो करूँगा , पता नहीं कितनी सारी योजनाएं। लेकिन हर बार कुछ न कुछ छूट ही जाता था कि ये नहीं हुआ , वो नहीं हो पाया और छुट्टियां खत्म होने को आ गयी। मुझे स्मरण है हर वो क्षण जब लौटने का वक्त आता था। कैसा तो भी दिल हो जाता था। न लौटने , छुट्टियां बढ़ जाने, या बढ़ा लेने , माता-पिता से दूर जाने की सोच दिल बैठाती रहती थी , किन्तु वो दिन तो आता ही था। मैं जाता ही था। पिता से अधिक माँ के लिए मेरा लौटना अधिक कष्टकारी होता था किन्तु दोनों ने कभी मुझे मेरे कार्यों में किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं आने दिया। मुझे दृढ़ इच्छा शक्ति वाला बनाया। धैर्य और मजबूती से अपने धर्म-कर्म के प्रति ईमानदार बने रहने वाला सिखाया , स्वाभिमान के साथ जीना और आत्मविश्वास की साँसे लेना उन्ही से मुझमे समाहित हुआ। जितना जो कुछ कर सका हूँ, या करता हूँ या कहूँ जीता हूँ उसकी धुरी तो वे ही हैं । और जब मैं इस तस्वीर को देखता हूँ - जो लगभग १९-२० वर्ष पुरानी है तो छुट्टियां लेने वाली सारी परिस्थितियां , सारा माहौल और घर पहुँचने , पहुंचकर रहने वाला पूरा का पूरा समय आँखों के सामने नाचने लगता है। उन दिनों मोबाइल होते नहीं थे। कैमरे आदि का विशेष ध्यान होता नहीं था। तस्वीरें खींचना तो बस सौभाग्य होता था कि कोई कभी ऐसा आ जाए जिसके पास या तो कैमरा हो या वो तस्वीर लेने ही आया हो। ऐसा ही एक क्षण था यह तस्वीर वाला। पिता के साथ बैठना, विशेष यह था कि उनकी उस जगह पर बैठना जहां उनका पूरा संसार बिछा होता था, मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होती थी। ( ये तखत आज भी है हमारे पास , उनकी किताबों वाले संसार सहित ) और उनका हाथ सिर पर होने जैसी एकाध तस्वीर ही है जो पूरी तरह अनौपचारिक और नैसर्गिक है जिसे बस किसीने क्लिक कर दिया था शायद मेरी स्मृतियों के लिए। ये तो स्मरण नहीं है कि किसने ये तस्वीर खींची थी किन्तु उसे आज लिख कर अपना धन्यवाद प्रकट करना चाहा है। उसे ह्रदय से कोटि कोटि धन्यवाद प्रेषित करता हूँ।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

काल के वो सात दिन

''पांच महीने बीत गए।  अब तक ऐसी मनस्थिति ही नहीं बनी थी कि कुछ लिख सकूं विस्तृत रूप से। आज भी नहीं है, इसके बावजूद कुछ लिखा।  बस ये कुछ ही है...किन्तु  जो लिखना चाहता था , वो वैसा लिख ही न सका।  अत्यधिक भावनावश।  अत्यधिक बातों के एकसाथ घुमड़ने के कारण । और इस वजह से बहुत कुछ छूट गया। फिर कभी जब लिखने का एकांत प्राप्त होगा और मनस्थिति एकाग्र होगी तब लिखूंगा ही। ''
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जीवन का सबसे तकलीफदेह शब्द है 'जाना'। हम सब प्रिय के लिए 'जा... ना..' चाहते हैं किन्तु वह 'जाना' ही हो जाता है। क्योंकि ये सत्य है। ये सत्य चलचित्र का वो अंतिम दृश्य है जिसकी गति गोया 'फास्ट फारवर्ड' की तरह हो जाती है और देखते ही देखते सबकुछ खत्म सा। ये एक ऐसी फिल्म है जो अपनी मन्द गति, स्थिर गति से प्रारम्भ होती है ..सबकुछ सामान्य सा चलता रहता है कि अचानक मानो चक्रवात आता है और चंद मिनटों में सबकुछ तबाह हो जाता है । कोई कुछ समझे इसके पूर्व तूफ़ान अपना कार्य कर चला जाता है , छोड़ जाता है अपने चिन्ह , बना जाता है ऐसा सूनापन, ऐसी कांटेदार शान्ति जिसकी हवाएं सांय सांय करती हुई अकेलेपन का संसार निर्मित कर जाती है। बहुत चुभने लगती है। 
आना लंबी प्रतीक्षा का प्रतिफल है और जाना चुटकी का खेल।
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वो दिन भी ठीक उन सामान्य दिनों की तरह ही था। जो अब तक व्यतीत हो रहे थे। खुशनुमा। दोपहर के 2 बजे थे। सीमा ने रोज की तरह भोजन तैयार कर लिया था। बीती शाम को तुलसी विवाह था, पूजन की थी, प्रसाद स्वरूप बैगन, मैथी, तुअर फली ,आंवले आदि अर्पित किए थे, जिसकी आज सब्जी बना ली थी। पिछले दिनों गुजिया के लिए लाया गया खोया शेष था, जिसमे शक्कर मिलाकर खाना हम सबको रुचिकर लगता था। आशी छुट्टियों में आई हुई थी जिसे 5 नवम्बर को लौटाना था। उस  दिन  3 नवम्बर थी। मैं, पिताजी, माताजी, दीदी और आशी । एकसाथ बैठकर ही भोजन करते हैं लिहाजा उस दिन भी । हंसी, ठिठोली, बातें , चर्चा आदि सब सामान्य और पूर्व की तरह। भोजन का आनन्द , साथ होने का सुख और भविष्य की कुछ योजनाओं के मध्य हंसी-मजाक । पिताजी ने बताया कि आज वो कुछ ज्यादा चल लिए। सुबह की सैर फिर से प्रारम्भ किए उन्हें आज चौथा दिन था। हम सब खुश होते थे पिताजी इस उम्र में भी स्वयं को कितना फिट रखते , रखने के लिए ध्यान देते हैं। वो हमारी प्रेरणा थे। कहने लगे आज कोई पांच छह किलोमीटर चल लिया ...।
आशी को भूख नहीं थी सो कहने लगी हम मम्मी के साथ खाएंगे। पिताजी ने हँसते हुए कहा - खालो बेटा , आप होस्टल चली जाओगी तो फिर हम साथ में कब खाएंगे पता नहीं।
आशी ने कहा - रात में खाएंगे न!
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भोजन उपरान्त खाने की दवा ली। पिताजी बड़े भाई साहब की छपने वाली गजल संग्रह के लिए समीक्षा लिख रहे थे। वो चाहते थे अच्छी से अच्छी समीक्षा लिखी जाए जो उर्दू से अलंकृत हो क्योंकि भाई साहब की गज़लें उर्दूयुक्त थीं। इसीलिए वे अध्ययन भी कर रहे थे और समीक्षा की तैयारी में लिख लिख नोट बना रहे थे। भोजन उपरांत उन्होंने सीमा से कहा - आज आराम करूँगा, बाद में लिखूंगा। 
किन्तु अभी लेटे भी नहीं थे कि उनके जबड़े में दर्द उभरा। असहनीय दर्द। वो सहन कर रहे थे। हम लोग परेशान न हो इसके लिए स्वयं को जल्दी से जल्दी ठीक करने की कोशिश में लगे थे। शायद वे अपनी जमा की शक्ति का उपयोग कर रहे थे। अभी चंद सैकंड पूर्व तक जो आलम था वो अचानक बदल चुका था। सीमा ने कहा डॉक्टर के पास चलते हैं। पिताजी ने उससे कहा - हर बात में क्या डॉक्टर, चिंता मत करो ठीक होगा। 
किन्तु हालत बिगड़ती रही और मैं समझ ही नहीं पा रहा था करूं क्या ??
पिताजी को छोड़ कर बाहर डॉक्टर ढूँढू? या उन्हें अस्पताल ले जाऊं? या जैसा कि वे कहते जा रहे थे रुको, रुको ..ठीक होगा ..पर थम कर प्रतीक्षा करूं उनके स्वस्थ हो जाने तक?
मां, दीदी, सीमा , आशी और मैं बुरी तरह घबराए से...
पिताजी बेहोश हो गए। 
इस वक्त को लिख पाना साक्षात ईश्वर के लिए कठिन है ।
कुछ देर बाद ही चेतना लौटी। मेरी अटकी साँसे चलने लगी, घबराया और लगभग बेहद डरा हुआ मन धीरे धीरे पिताजी की चेतना संग स्थिर होने लगा। चेहरे पर सुखद भाव कि पिताजी स्वस्थ हो रहे हैं। वे लौटे। 
लौटना सुखद होता है । लौटना , आना , मौजूद होना जीवन का आधार है।
पेट में दर्द की शिकायत। पर ये अज्ञात भय वाला नहीं । शाम हो चुकी थी। पिताजी ने मुझसे कहा आशी को लेकर तुम और सीमा जाओ और सामान ले आओ। उसकी तैयारी करो। उसे जाना है। हम तीनों शाम के बाद बाज़ार गए। लौटे। इस मध्य कल्याण से भाई साहब भाभी भी आ गए थे जिन्हें दीदी ने फोन पर इत्तला कर दी थी। ये मुझे धैर्य देने के लिए काफी था। पिताजी सामान्य नहीं हो पाए थे। वे बातचीत कर रहे थे किंतु पेट की पीड़ा से भरे भरे। उन्होंने इसी वजह से रात का भोजन नहीं किया। 
भाईसाहब कल्याण लौटने वाले थे किंतु हालत देख रुक गए, सुबह अस्पताल ले चलने का तय हुआ जबकि पिताजी इसके लिए बिलकुल राजी नहीं थे।
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पुत्र क्या कर सकते थे ? विवश। पिता लाचार अपनी पीड़ा से। सब सधता गया। सुबह कल्याण जाकर अस्पताल में डॉक्टर को दिखाना तय हुआ। मैंने गाड़ी संभाली। भाई साहब अपनी दुपहिया लाए थे वे उससे। भाभी हमारे साथ। मम्मी को पिता ने कहा चिंता मत करना, सीमा को जय सियाराम कहते हुए शाम को लौट आऊंगा की तसल्ली दी। आशी को अपनी तैयारी करने के लिए कहा और हम कल्याण आ गए। 
अस्पताल। डॉक्टर। चिंता का प्रतिशत कम हो जाता है। पिताजी खुद गाड़ी में चढ़े थे, खुद ही उतरे। यानि इस वक्त भी हेल्प नहीं लेने की आदत और खुद से मजबूत तथा ईश्वर पर भरोसे का सम्बल था। चेक अप। एक पीड़ाहारी इंजेक्शन और फिर भाई साहब के घर। दर्द कम नहीं था। चूंकि उनका डॉक्टर नहीं आया था इसलिए उसके समय का इंतजार करना था। पिताजी को शायद इंजेक्शन और दवा ने झपकी दे दी थी। मैं डॉक्टर से मिलने पहुंचा। उससे बात की। बताया। उसने एडमिड होने की सलाह दी। 
पिताजी अस्पताल में भर्ती नहीं होते। वे चाहते ही नहीं थे। और उन्हें मनाना कठिन था। ये सोच मुझे घबराहट दे रही थी। अभी तक ये ज्ञात नहीं हुआ था कि आखिर हुआ क्या है ! भाई साहब को फोन किया। डॉक्टर की बात कही। हम दोनों पहले यही चाहते रहे कि डॉक्टर अस्पताल में एडमिड का न कहे। उससे फिर पूछने और कहने कि क्या घर पर ही नहीं रह सकते? आप दवाएं और एतिहात बता दें। किन्तु डॉक्टर से फिर ये पूछने का संकोच गहरा था मुझमे। भाई साहब ने कहा घर आ जाओ पापाजी से बात करेंगे। मैं घर लौट आया।
ये 4 नवम्बर था। जैसे सब नियत था। विधान जो लिखा था उस पर ही चलना था। मन, बुद्धि सब कुछ जैसे अपनेआप कोई धका रहा था। मैं जो अस्पताल में एडमिड के लिए कतराता था, भाई साहब जो पचास बार सोच कर निर्णय लेते थे, और खुद पापाजी जो अपने इलाज के लिए भी एक राय दिया करते थे ....ऐसा कुछ न था। मैं घर पहुंचा, भाई साहब ने पापा से बात की। पापा उठकर बैठ गए और अस्पताल में एडमिड के लिए तैयार हो गए। जैसे कोई ये सब हमसे कराने के लिए बाध्य करा रहा था। हमारा अपना निर्णय, विचार, सोच सबकुछ होने वाले, होते रहने वाली स्थितियों के वश में था। हम किसी बुद्धू की तरह समय के इस जाल में फंसे थे और इसकी खबर तक नहीं थी कि क्या होने वाला है । बस पिता शीघ्रातिशीघ्र स्वस्थ हो जाएं। घर लौट आएं। ईश्वर को शायद इस दिन से चैन नहीं लेने दिया होगा हमने सबने। 
रविवार का दिन था ये। 
पिता चलकर ही अस्पताल में दाखिल हुए थे। कैज्युल्टी में जांचे कराई। वजन 58 किलो। पिता ने हंसते हुए कहा था ये वजन स्थाई रूप से है मेरा। न कम न ज्यादा। मेंटेंड।और कुछ देर बाद एक प्राइवेट वार्ड में दाखिल हुए। मैंने देखा, व्हील चेयर पर बैठना पिताजी को कभी नहीं जँचा था। उस दिन भी मना कर दिया कि नहीं मैं पैदल ही चलूंगा। चूंकि दूसरे माले पर वार्ड था इसलिए व्हील चेयर पर बैठना मजबूरी थी। गुस्सा थे पिता। ये पसंद नहीं था उन्हें। हम भी चुपचाप थे। 
पिता को हौसला दें भी तो कैसे ? फिर भी मेरी अल्प बुद्धि और प्रयास यही था। पेट में दर्द बना हुआ था। कैसे सहन कर पा रहे होंगे वे.....सोच कर मैं सिहर उठता हूँ। भाई साहब साथ थे तो चिंता भी कम थी। पिता भी जानते थे कि पुत्र हैं साथ और ये उन्हें विशवास रहा जीवन में कि पुत्र विजयी हुए है इस तमाम तरह की परेशानियों या संकट में। हम पिता की हिम्मत के भरोसे थे। विल पॉवर। माँ का उनके प्रति अगाध भक्तिभाव और प्रेम का शक्तिपुंज था जो पिता को स्वस्थ करने के लिए काफी था। भरोसे ऐसे ही होते है विवश, लाचार और बेबस व्यक्ति के जो चिकित्सा के एकमात्र सहारे होता है। उसके हाथ कुछ नहीं होता। 
कल सुबह आशी की ट्रेन थी। पिता ने कहा तुम बदलापुर जाओ। विवेक मेरे पास है। सुबह आशी को छोड़ कर यहाँ आ जाना। अब ठीक भी लग रहा है मुझे। घबराने की जरूरत नहीं है ।
भाई साहब ने भी मुझे बदलापुर जाने का कहा और मैं रात बदलापुर घर आ गया।
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कैसा होता है समय चक्र और कैसा पिसता जाता है आदमी। बंधा हुआ, पीछे पीछे दौड़ा जाता है जहाँ वो ले जाए। सबकुछ अच्छा करने, अच्छा होने की एक आशा आदमी को भगवान् भरोसे डाल देती है। उसे लगता है जब उंसके हाथों में कुछ नहीं तो अवश्य ईश्वर उसका साथ देगा। बचपन से यही सुना और देखा भी। फिर पिता स्वयं ईश्वर पर विश्वास करते हैं और उनके लिए तो ईश्वर ने सदैव अपना हाथ बढ़ा कर थामा भी, कई कई बड़े बड़े संकटो से पार किया। ये संकट भी पार होगा। पिताजी स्वस्थ होंगे और घर लौटेंगे। 
उन्हें स्वस्थ होना ही होगा .....
मैं बदलापुर घर आ गया। माँ चिंतित थी। पिताजी की हालत और उनकी खबर के लिए व्याकुल। जब सब ठीक है और अस्पताल में है , चिंता की बात नहीं है आदि सुना तो उनके चेहरे पर राहत सी रेखा स्पष्ट झलकती दिखी। अपने ईश्वर से उनके स्वास्थ्य के लिए अश्रु छिपाती माँ के मनो मस्तिष्क में बस पिता ही थे और उनके ही बेहतर स्वास्थ्य की ईश्वर से भीख मांग थी। मैं जानता था कल रात से वो सोई नहीं हैं । नींद उनकी उड़ चुकी थी। किन्तु मन में यकीन था उन्हें कि पुत्र आया है तो वहां सब कुशल ही होगा। मुझे भी संतोष था इस बात का कि पिताजी जल्दी स्वस्थ होंगे क्योंकि अब तो अंडर ट्रीटमेंट हैं । आशी की तैयारी में जुटी थी सीमा किन्तु पिताजी की चिंता लिए। उसे भी मेरे आने और इस खबर से थोड़ी चिंता कम हुई थी कि वे अब ठीक हैं । कल सुबह 5 बजे मुझे आशी को लेकर निकलना था। सीधे अस्पताल। वो अपने बब्बा से मिलेगी और बाद में मैं उसे रेलवे स्टेशन छोड़ने जाऊँगा।
उसकी तमाम तैयारियां हो चुकी थी।
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नींद मानो हवा में थी, झपकियां घड़ी के कांटे गिन रही थी।साढ़े तीन बजे का अलार्म था जिसके पूर्व ही मैं उठ चुका था। जल्दी इसलिए निकलना चाहता था कि आशी बब्बा के साथ कुछ अधिक समय रह ले। उसकी ट्रैन 6.45 पर थी। भाईसाहब का 4 बजे फोन आया कि उठे या नहीं ? इसके अलावा उन्होंने कुछ बताया नहीं क्योंकि हम निकलने की तैयारी कर रहे थे। कार से आशी को लेकर निकला कल्याण की ओर। साढ़े पांच बजे अस्पताल पहुंच गए थे। 
अचानक खबर दिमाग की सभी नसों में बहने वाले खून को जमा देती है । भाई साहब ने वो सब बताया जो बीती रात को गुजरा। पापा आईसीयू में थे। आईसीयू के हिटलरी नियम थे। कुछ लड़कर आशी को बब्बा से मिलवाया। बब्बा ने उससे कहा शाम तक घर पहुंच जाऊँगा। तुम अच्छे से जाओ । चिंता मत करना।
मैं तो पापा की हालत और जो भाई साहब ने बताया उसे सोच कर ही अंदर ही अंदर से भयभीत था। काँप रहा था। किंतु खुद को खड़ा रखा था। 
आशी को छोड़ कर लौटा....
डॉक्टर ने हार्ट अटैक का बताया ...
उज्जैन से बड़े भाई साहब को भी बुलवा लिया गया था। मम्मी दीदी को ये खबर किसी सदमे सी होती , इसी आशंका में उन्हें नहीं बताया और सब ठीक हो जाएगा जैसी बातें कर उनकी बड़ी बैचेनियों को थामने का प्रयत्न करता रहा। ये समय विकट था। संकट का था। हम दोनों भाई बस जैसा जो जो कराता जा रहा था वही करते जा रहे थे। समय के हाथों बिके हुए। गुलाम से। मैं भाई साहब पर आश्रित। जो वे करें, जैसा करें.. बस किसी भी तरह पिताजी को ठीक कर दे भगवान्। काल अपनी कुंडली मारे बैठ गया था। 
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बड़े भाईसाहब 6 नवम्बर की सुबह आ गए थे। 7,8,9,नवम्बर.....और दस की दोपहर के बाद भयंकर परिस्थिति। उज्जैन से बड़ी भाभी और अविजश भी आ गए थे। इधर  हिंदूजा हॉस्पिटल का विवेक भाईसाहब ने जमाया। दिनभर वे वहां दौड़ते रहे। लौटे। बदलापुर से मम्मी दीदी और सीमा को बुलवा लिया था। शाम गुजरते गुजरते पिताजी की हालत बिगड़ती रही। या बिगाड़ दी जाती रही अस्पताल द्वारा ये रहस्य है। क्योंकि जो कुछ भी अनर्थ हुआ था वो दो घंटो के अंदर हुआ जब हिंदूजा में शिफ्ट की बात हुई।
मुझे उम्मीद थी कि यदि वक्त रहते हिंदूजा पहुंचे तो वहां पापाजी को स्वस्थ कर दिया जाएगा। एंबुलेंस। रात भर बड़े भाईसाहब हिंदूजा के आईसीयू में। हम दोनों भाई नीचे लॉन में बैठे अच्छे स्वास्थ्य की खबर के लिए आतुर ....
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विधि का विधान अपनी इबारत नहीं बदलता। जो लिखा जा चुका होता है वो अमिट हो जाता है । सारे देवी देवता, ईश्वर आदि निरर्थक साबित हुए.........11 नवम्बर हम सबके लिए काला रंग लेकर आया। सूरज की तेज रोशनी चिता सी प्रतीत हो रही थी। समुद्र का वो किनारा मुझे आंसुओ से लबालब दिखा। विशी और आशी को भाईसाहब ने बुलवा लिया था। दोनों हवाई मार्ग से दोपहर में पहुंच गयी थी सीधे हिंदूजा अस्पताल। आँखे गीली। रोना तूफान सा उमड़ रहा था मगर पता नही कौनसी मजबूर शक्ति थी जो थामे हुई थी। सबकुछ उजड़ सा गया था। पैरों की जमीन ढह गई थी।  नितांत अकेलापन। आधारहीन सा क्षण तारी हो चुका था। यहाँ से वहां हम तीनों भाई बेतरतीब से भाग दौड़ रहे थे कि कोई ऐसा हो जो पिता को बचा ले। पिता लौट आएं। वो घर चले आएं।  कोई नहीं था। दूर दूर केवल सन्नाटा । और धधकता हुआ पिता प्रेम का लावा रीस रहा था.....सबकुछ खत्म हो चुका था .....हम पिता को नहीं बचा सके थे। हार गए थे हम। जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में हारना अंग अंग को बुरी तरह क्षत विक्षत कर देती है। हम टूट गए। बिखर गए। और देखते ही देखते हमारे सारे देवी देवता ..ईश्वर आदि हमें गोया अकेले छोड़ भाग चुके थे ......
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"काँप जाता हूँ मैं 
आज भी कानो में गूंजती है आवाज़ माँ की -
बेटे तेरे पापा कैसे हैं 
बात करा 
हमारी चिंता छोडो हम ठीक हैं 
मेरी खांसी भी ठीक है 
पापाजी का ध्यान रखना ....
वो हैं कैसे ?
डाक्टर क्या कहता है ?
कब तक छुट्टी मिलेगी ?
उन्हें हुआ क्या है ?
आज चतुर्थी है 
उनसे कहना 
वो अच्छे हो जाएंगे ..
एक बार बात करवा दे ..

लाचार , मजबूर मैं 
आईसीयू के हिटलरी रूल ने
मोबाइल तक को बाहर रखवा रखा 
और मन समझाने , धीरज रखने 
धैर्य बाँधने समझाता रहा हरबार माँ को ..
मां समझती रही
इस यकीन से कि
ईश्वर साथ है 
बेटे साथ हैं ..
और कह कर भी तो गए थे वो 
जल्दी लौट आऊंगा घबराना मत।

नहीं लौटे....
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"खालो बेटा , आप होस्टल चली जाओगी तो फिर हम साथ में कब खाएंगे पता नहीं। " आशी को कहा था पिताजी ने ...अब कभी नहीं खा पाएगी वो खाना अपने बब्बा के साथ।
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काल के ये सात दिन - और इन सात दिनों ने हमारा जीवन ही बदल कर रख दिया.....पिता बिन माँ को देखना , पिता बिन हमें रहना ...पिता बिन ये दिन .....सूने ..बेजार, पतझड़ी ...सूखे ...जैसे तेज तपती धूप में रेत के बवंडर ही बवंडर उड़ते हुए छा चुके हैं ......जैसे दिशाविहीन मार्ग , कोई लक्ष्य नहीं कोई मंजिल नहीं ..जैसे बेतहाशा दौड़ता कोई प्यासा घोडा और कोई सरोवर नहीं बस मरीचिका ही मारीचिकाएं .......दूर तक सन्नाटा ..........

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

निष्ठुर शब्द

व्यतीत हो चुके क्षणों को
शब्द देकर कागज पर
उतारना
फिर से जगाना होता है
अपने अतीत को।
कि जैसे पूर्वजन्म को देख लेने की जिज्ञासा
और देखकर भयभीत हो जाना
व्यथित हो जाना, विक्षिप्त हो जाना होता है।
सुख ही नहीं होते कि
मुस्कुराते रहें।
पीड़ा भी होती है जिसे
पुनः जीना होता है।
जैसे जख्म पर नमक।
लिखना और बीते पलों को
जीना जरूरी है एक लेखक के लिए।
लेखक पीछे छूटा हुआ ही लिखता है ।
वह नया कुछ नही लिख पाता
हो चुके को शब्द देता है बस्स।
और ये ठीक वैसा भी होता है
कभी कभी कि
जैसे जहर का काट जहर।
वो दिन, वो समय और वो काल
रह रह कर मंडराते हैं
इस छोटे से मस्तिष्क के आसपास
और रह रह कर कसमसा उठता हूँ मैं
कि काश! ये हो जाता तो वैसा नहीं होता
वैसा हो जाता तो ये नहीं होता
और सबकुछ
जैसा अभी है
जैसा घटना से पूर्व था
वैसा ही साक्षात हो जाता।
किन्तु समय लौटता कब है ।
लौटता तो लिख कर भी नहीं है
जबकि लिखता हूँ वही सब जो हुआ
और जिन्दा कर लेता हूँ यादों को
कि अब कुछ ऐसा हो जाए कि
जो चाहा नहीं था और हुआ
वो अब न हो ।
पर आख़िरी में शब्द भी ठहरते हैं समय के गुलाम ही।
शब्द पिता को नहीं लौटा लाते
कितने निर्मम होते हैं वो ...
कितने निष्ठुर , निर्मोही

शनिवार, 17 मार्च 2018

नवनृत्य

पिता तुम्हारे चरण युग्म के 
दर्शन से हम थे कृतकृत्य ,
जीवन के आँगन मे हम सब
करते थे नित-नित नवनृत्य ।

ब्लैक होल

सिर्फ ब्रह्माण्ड में ही नहीं
धरती पर , जीवन में भी होता है ब्लैक होल
एक ऐसा अंधा कुआं जिसका गुरुत्व बल
खींच लेता है अपने अंदर।
मजे की बात ये कि
गरीबी का भी होता है गुरुत्व बल
परिवार के जंजालो का भी अपना एक गुरुत्व बल होता है
संबंधो - रिश्तो , अपनों का भी होता है
जो खींच लेता है आदमी को अपने अंदर
उसकी पूरी प्रतिभा के बावजूद,
उसके अपने किसी बेहतर सूरज होने के बावजूद।
कितना भी हाथ-पैर मार ले
नहीं निकल पाता इस ब्लैक होल से बाहर।
सच है कि
इसके आसपास आने मात्र से ही प्रकाश का पुंज भी हो अगर तो
धंस जाता है वो।
धीरे धीरे उसका पलायन वेग भी प्रकाश की गति से तेज होकर निगल जाता है सबकुछ।
कोई हाथ नहीं
कोई सहयोगी नहीं
जो खींच सके ऊपर आदमी को।

गुरुवार, 8 मार्च 2018

( संस्मरण -1)

अहा ! पूज्य पिताजी की लेखनी हो और मन डूबे न ऐसा सम्भव ही नहीं होता ! उनके द्वारा रचित 'नवीन' और उनका काव्य" नामक एक शोध प्रबंध वर्ष 1963 में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ था । मेरे पास धरोहर है। इस पुस्तक को पढ़ रहा हूँ और उस काल में डुबकी लगा रहा हूँ जिसमे साहित्य का अमृत घुला हुआ है। पिताजी ने कुछ संस्मरण भी इसमें शामिल किए हैं , दिसंबर 1959 में पिताजी दिल्ली गए जहाँ बालकृष्ण नवीन के समक्ष ही उन्होंने इस प्रबंध को पढ़कर सुनाया था और सहमति प्राप्त की थी । दिल्ली में ही पिताजी से श्री बनारसी दास चतुर्वेदी और श्री रामधारी सिंह दिनकर जैसे साहित्यकार भी मिले जिन्होंने पिताजी के प्रबंध पर अपनी सम्मति दी। पिताजी ने चर्चाओं के दौरान कई बार अपने उन दिनों को साक्षात किया था और मुझे लगता वही दिन थे जब उच्च कोटि के साहित्यकार इस धरा पर विचरण करते थे। मैं ये बहुत बाद में जान पाया कि आज के दौर में पिता अपने किसी साहित्य प्रकाशन के प्रति उदासीन क्यों रहे ! खैर ...
उन दिनों के किसी भी साहित्यकार की काव्य विवेचना करना सरल नहीं था । जब मैं पिताजी द्वारा लिखित इस प्रबंध को पढ़ रहा हूँ तो लग रहा है कितना अध्ययन किया होगा, कितनी सूक्ष्म नज़र रही होगी और साहित्य का कैसा तो अथाह ज्ञान मस्तिष्क में रहा जो शब्द शब्द से किसी निर्मल गंगा सा बहते हुए पन्नो पर उतरा है ...
मैं ये सोच सकता हूँ कि जिन दिनों हजारी प्रसाद, निराला, दिनकर जैसे साहित्यकारों का बोलबाला रहा होगा उन दिनों आपकी कोई साहित्य निधि यदि थोड़ी भी कहीं से कमजोर रह जाए तो उसका टिक पाना कठिन हो जाता है ..ऐसे दौर में ऐसे ही साहित्यकारों के मध्य पिता की कलम अपने पूरे अधिकार के साथ चली , सराही गई और सम्मानित हुई मेरे लिए गर्व का विषय है। सोचता हूँ काश घर गृहस्थी के जंजाल पिता को न फांसते तो अच्छा रहता ...पर ये पिता ही थे जिन्होंने रंच मात्र भी अपने दायित्वों, कर्तव्यों से मुख नहीं मोड़ा और कभी अपने इस लगभग छूट गए अवसरों का शोक व्यक्त नहीं किया ..
ढेर ढेर सारी कृतियाँ लिखी हुई हैं, कितने ही शोध और कितने ही विषयों पर अध्ययन का जो लिखा पुलिंदा है , मेरे पास धरोहर के रूप में है । मुझे दुःख हुआ था तब जब पिताजी द्वारा ऐसे ही लिखे ढेरो ढेर कागज के बंडल जला दिए गए ये कहते हुए कि रद्दी बहुत हो गई है, अब इनका कोई काम भी नहीं , कागज पुराने होकर कट फटने लगे हैं ...
जो जो अच्छी हालत में थे , जिद कर मैंने उन्हें अवेर लिए ..वे ही इतने हैं कि यदि मैं अध्ययन करने बैठ जाऊं तो बरसो बरस हो जाएं । आज सोचता हूँ हम भाइयों ने चुपके से ही सही उनकी कुछ कविताओं को उनसे नज़रें बचाकर पुस्तकाकार रूप दे दिया तो वे जिल्द सहित संग्रहणीय हो गई। अन्यथा प्रकाशन संबंधी किसी तरह का मोह पिताजी में कभी रहा नहीं था।
बहरहाल ,एक तरफ दिनकर जी अपनी हुंकार से जन जीवन में नवप्राण डाल रहे थे तो दूसरी ओर नवीन जी उन प्राणों में अपनी लेखनी से जनशक्ति संप्रेषित कर रहे थे.. उनके शोध प्रबंध से ही प्राप्त नवीन जी की ये पंक्तियां देखिए जो आज भी प्रासंगिक लगती हैं -
"ओ भिखमंगे, अरे पतित तू, ओ मजलूम , अरे चिर दोहित ,
तू अखण्ड भंडार शक्ति का , जाग अरे निद्रा -सम्मोहित।
प्राणों को तड़पाने वाली हुंकारों से जल - थल भर दे ,
अनाचार के अम्बरों में अपना ज्वलित फलीता भर दे।"

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

मैं चूक गया

पिता के साथ जाना चाहता था चित्रकूट।
योजना बनी , कई बार बनी,
और टलती गई।
किंतु विश्वास था कि
एक दिन ज़रूर जाना होगा
पिता के साथ चित्रकूट।
पिता के साथ
ऐसी किसी भी जगह जाना
केवल जाना , घूमना और
दर्शन मात्र ही नहीं होता था,
वरन् होता था , उस स्थल को
उसके पूरे इतिहास के साथ
जान लेना ,
उसे उसकी पूरी विहंगमता के साथ
महसूस कर लेना
अंतरतम में समा लेना।
और यही तो होता है असल में
ऐसी किसी भी यात्रा पर
'जाने' का अर्थ।
किसी भी तीर्थ या धाम को
'करने' का सार्थक्य ।
पिता उस काल को
सम्मुख उपस्थित कर दिया करते थे
अपनी अद्भुत स्मरणशक्ति और
अपनी अतुल्य वृक्तृत्व शैली से।
पिता में यह कोई जादू था
या उन्हें कोई ईश्वरीय वरदान प्राप्त था ,
नहीं जानता।
किंतु उनके साथ यात्रा करना
जीवन का सफलतम समय होता था।
ऐसी कतिपय यात्राएँ मेरे अंदर
आज भी सजीव हैं।
आज भी उनके शब्द-चित्र
मेरे भीतर मुखर हैं।
वे मेरे एकांत के पवित्र साथी हैं
वे मेरी चुप्पियों के आह्लादित स्वर हैं ।
पिता के साथ की गई मेरी
हर धाम की यात्रा की रज
आज भी मेरे मन-मस्तिष्क को
पावन करती है।
पिता के साथ की गई मेरी
हर तीर्थ यात्रा के जल से
आज भी मैं वैचारिक स्नान
किया करता हूँ ।
पिता भी चाहते थे कि
मैं उनके साथ चित्रकूट
भाव और विचार की कुछ
पूँजी लेकर जाऊँ।
इसीलिये उन्होंने समय-समय पर
बातचीत के ज़रिये मेरे हृदय में
एक ललक पैदा कर दी थी
चित्रकूट जाने की।
जो उत्तरोत्तर तीव्र उत्कंठा में
बदल गई थी।
लेकिन , शायद राम ही नहीं चाहते थे
कि मैं पिता के साथ चित्रकूट जाऊँ।
और अब मेरे लिये
चित्रकूट मात्र
पौराणिक और काल्पनिक कथाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं।
अब क्या मिलेगा मुझे चित्रकूट में
सिवाय पत्थरों , नदी-तालों के
सिर्फ़ कथाओं के लिपिबद्ध ज्ञान
और उनके रटे-रटाये
खोखले शब्दोच्चारण के।
और यह सब मेरे लिये अर्थहीन है
वहाँ मेरे लिये अब.कुछ नहीं ।
मुझे तो उस.राम-स्थल में रमना था
वह चित्रकूट देखना था
जो सदैव सजीव है।
जो है , पर दीखता नहीं।
क्योंकि वह दिव्य है , अलौकिक है।
वह इन चर्मचक्षुओं से
भला कब और किसे संभव हुआ है दीखना
वह तो मुझे पिता की वाणी के प्रताप से ही
दृष्टिगोचर होना था ,
वह तो मुझे पिता के साहचर्य से ही
अनुभूत होना था ।
लेकिन,
मैं चूक गया पिता ..
मैं चूक गया चित्रकूट जाना।
मैं चूक गया चित्रकूट पाना ।
मैं चूक गया ।
(फागुन डायरी के बेरंग पन्ने- 01-03-2018)

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

मां अब चाय नहीं बनाती है

अलस्सुबह
नहीं आती किचन से आवाज
खटपट की
माँ अब चाय नहीं बनाती है।
मेरी नींद प्रतिदिन खुलती है
या प्रतिदिन अलस्सुबह उठ जाता हूँ
इसलिए कि वो खटपट की आवाज आएगी।
देर तक अपने कान किचन की ओर लगाए रखता हूँ
कि अचानक स्मरण होता है
माँ अकेली है
सो रही है।
उनके बगल वाले बिस्तर पर नहीं हैं पिता।
जो उठते थे
माँ को आवाज लगाते थे
किचन में जाकर माँ
चाय बनाती थी
पिता अपने नित्य कर्म में जुट जाते थे
माँ और सुबह होने के इन्तजार में
फिर लेट जाया करती थी।
खटपट की आवाज जैसे मौन हुई है
वैसी ही मौन हुई हैं माँ।
​हम सब अपने आप को व्यस्त रखने में समर्थ हैं
और जिनकी व्यस्तताएं ही पिता से थी
उनके लिये सारी समर्थताओं के अर्थ ही निरर्थक हैं ।
माँ
अब हम बच्चों के लिये
हँसती है
बातें करती है
जीती है....
मां
अब चाय नहीं बनाती है।

प्रतीक्षा है ..

प्रतीक्षा है ..
जब बेटी ने पूछा था बब्बा से
मृत्यु पश्चात कहाँ जाते हैं हम ?
उत्तर था , ये तो उसके बाद ही जाना जा सकता है ।
किन्तु कहा नहीं था
कि ये तो उसके बाद ही बताया जा सकता है ।
निश्चित हुआ कि
जाना जा चुका है ..
ये तय न था, न है कि
बताया जाएगा ...

फिर भी उत्तर की प्रतीक्षा में है बेटी
मैं इस इन्तजार में कि
जानी हुई हर चीज पिता ने बताई है
ये भी बताएंगे ..

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

ठीक ठीक वैसे ही चरण हैं

ठीक ठीक वैसे ही चरण हैं
जैसे थे पिता के
और मस्तक पर हाथ का आभास
दिल तक सुकून पहुंचाता है
सच है
पिता छोड़ जाते हैं अपनी प्रतिकृति
भाई की शक्ल में।
यूं ही नहीं पूरा जगत था
राम के रूप में
भरत-लक्ष्मण -शत्रुघ्न का।

शनिवार, 27 जनवरी 2018

मैं खुद

मैं खुद उनके
मोबाइल से
उनके अकाउंट से
कर देता हूँ खुद की पोस्ट पर
लाइक
और फिर देखता हूँ अपनी पोस्ट पर
उनका नाम ...
उनका नाम ही मेरा अस्तित्व है
मेरा जीवन है
जैसे
जय सिया राम ।

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

वीतराग

यूं तो सब है
सब कुछ है
किन्तु कुछ भी नहीं है ।
'कुछ भी नहीं' भी एक होना है 
इस होने में कुछ है
जो न राग है , न वैराग्य है
सिर्फ वीतराग है।

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

किन्तु होता है

छोड़ देना
सबसे सही निर्णय होता है
और जो निर्णय होता है उसमे बंध जाना
कि मैंने छोड़ा
उस छोड़ देने को फिर से पकड़ना होता है ।
फिर से पकड़ना मत
क्योंकि इसमें ज्यादा गोंद लगा होता है
चिपक जाता है मोह की तरह।
छोड़ देना ,
खाली हो जाना
खाली होना भी आकाश होना है
आकाश बन जाना है
चाहे कोई उसे चीरते हुए रॉकेट भेजे
या अपनी पतंगे उड़ाए
उसने तो त्यागा है
धरती का लालच
और अपने ऊपर रचा वो सारा सौरमंडलीय आकर्षण
जिसमे चाँद-सूरज सारे ग्रह -नक्षत्र वास करते हैं।
सबकुछ हुआ करे , पर वो तो है
निस्संग , बेरंग।
दरअसल
कठिन होता है
फक्खड़पना लिए जीना
किन्तु होता है।

बस्स

अब न दुनियादारी का मज़ा
न बहस मुबाहस का
ये रंग नहीं सुहाता अब।
अब कुछ नहीं
अब बस मैं हूँ और मेरी अपनी दुनिया है।
कुछ किताबें हैं , कुछ यादें हैं
कुछ कहानियां, कुछ कविताएं
नदी है , ताल है
पर्वत है , डगर है
कांटे है , फूल है
कुछ सन्नाटे हैं , कुछ मौन है
कुछ अँधेरे हैं, कुछ लौ है
एक सफर है , एक न मालूम सा उद्देश्य है
बस्स।
....... जो दिख रहा 'मैं' है
वो भ्रम है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं ।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

हार्ट अटैक उसे नहीं कहते

डायनिंग टेबल सिर्फ भोजन के लिए नहीं थी
व्यासपीठ की तरह थी
जो खाली पड़ी है ।
यहीं देर तक बात होती थी,
यहीं होती थी डिस्कस...
ढेर सी ज्ञानवर्धक वार्ताओं का स्वाद भी
उतर आता था भोजन में
जो अब नहीं है।
वो टीवी बन्द है
अब नहीं लगते चैनल
समाचार , खेल , भागवत या रामकथाएं
नहीं होती व्याख्याएं
श्लोक आदि इत्यादि के मूल भाव
समझाने वाला कोई नहीं।
समाचार के बाद या उसके बीच राजनीतिक या सामाजिक कितनी सारी बातें
मेरे आलेखों में नहीं उतरती या मैं लिखता ही नहीं अब।
खेल का आनंद ,
मैच का रोमांच और
देश की जीत का जो जश्न हुआ करता था उनके संग
सब , सारा गुम गया है ।
अलसुबह अब चिड़ियाएं भी नहीं चहकती
जिनकी नींद ही उनके जागने के बाद खुलती थी ।
वो मोबाइल मौन पड़ा है
जिससे और जिनपर उनके और मेरे संवाद थे ।
फेसबुक या व्हाट्स एप की बीप उससे नहीं आती अब ।
और न ही वो आवाज़ कि बेटा इसे चार्ज पर रख दो ।
अब सिर्फ अलगनी है
खाली डोर ।
नहीं सूख रहे हैं वस्त्र ।
जिस साबून से वे अपने कपड़े धोते रहे
वो सूख रही है वहीं जहाँ वो रखते थे ।
इस्त्री किए , सलीके से जमी हुई उनकी पोशाकें
करीने से जमी हुई है बैग में ।
बैग वो भी अकेला है
जिसकी जिप बार बार खुलती थी
कभी माँ की दवाओं के लिए ,
कभी ग्लूकोज या इलेक्ट्रॉल के लिए ।
वो तांबे की लुटिया खाली रखी हुई है
जिसमे जल भर दिया करता था मैं ।
मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद
बने कई चश्मे
अपनी अपनी खोल में दुबके पड़े हैं वहीं
जहाँ वो अवेर के रखते थे ।
और ये सब मेरे जीवन की रगों में
बहने वाला वो रक्त था जो बिना ब्लॉकेज के अनवरत दौड़ रहा था ।
हार्ट अटैक उसे नहीं कहते जो आदमी को आता है
उसे कहते हैं जिसका जीवन पिता के साए में हो
और अचानक सबकुछ स्थिर हो जाए ।
अचानक रुक जाए ।
अचानक जैसे सबकुछ ठहर जाए ।
अचानक सबकुछ स्मृतियां बन जाए ।

रविवार, 14 जनवरी 2018

सफर ही सूर्य

ठिकानों की तलाश में
भटकने से अच्छा है
सफर का आनंद लेना।
देखो 
सूरज भी उत्तरायण हो गया।
अपने ही अक्ष पर घूमना
या आकाश गंगा के केंद्र की परिक्रमा करना
आसान नहीं होता।
पूरे २५ करोड़ वर्ष लगते हैं
और फिर फिर यही परिक्रमा भी।
न थकना , न हारना
निरंतर गतिमान।
जो निरंतर गति में रहता है
वो सूरज है ,
वो सौर मंडल का अवयव हैं।
कितने सारे रासयनिक विस्फोटो से धधकता
खुद जलता , फिर जलता
जल जल जीवन देता
सबकुच्छ उसकी गति में निहित है
उसकी गति से ही है।
दरअसल
सफर ही जीवन है
सफर ही सूर्य है
मंजिल सूर्य नहीं
क्योंकि मंजिल जीवन को
भस्म कर देती है,
ठीक सूरज की तरह
जो भी उसके करीब गया।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

पापाजी

मैं जानता हूँ
चाहतें पूरी नहीं होती,
क्योंकि
विधान का संतुलन बिगड़ जाता है
क्योंकि
विधि के लिए सब जायज होता है
क्योंकि
सत्ता मानव की नहीं होती है...
फिर भी चाहता हूँ ।
मैं जानता हूँ
शास्त्रों की बातें
कृष्ण से लेकर गीता के आख्यान
और लोग बागों की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाहें
जीवन दर्शन और उसके वैज्ञानिक सूत्र
सब जानता हूँ
किन्तु
फिर भी चाहता हूँ ।
चाहता हूँ
एक बार फिर से पूछूं
पापाजी चाय पिएंगे !
एक बार फिर से आवाज़ सुन लूं
बेटे यहाँ आओ ।
एक बार फिर से बोलूं
आज कितनी दूर तक घूमने गए थे ?
एक बार फिर बुलाऊँ
भोजन के लिए चलिए .....
एक बार फिर ....
जानता हूँ
ऐसा कुछ सम्भव नहीं ।
किन्तु नहीं जानना चाहता
नहीं समझना चाहता
और नहीं मानना चाहता कि
पिता की मृत्यु भी होती है ।
एक नितांत अकेलापन है
अबूझ पहेली सा भटकाव है
और ये ही अच्छा है ।
जानकर समझ कर जब
कोई नहीं पा सका सुकून
तो न जानकर, न समझकर ही अच्छा है ।
न सुकून पाने की लालसा और
न ही सत्य का बोध कि
वे नहीं ही है ..
किन्तु देखो न
दो महीने हो गए उनकी न आवाज़ सुनी है
न मैंने उन्हें देख पुकारा है - पापाजी ।

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

कितने सारे सूरज
अपने चूल्हे को भूल जाते हैं
जिसने उन्हें तपाया
निखारा और आसमान पर पहुंचाया।
कितनी सारी लकड़ियां
जलकर, राख बनकर
हवा में विलीन हो जाती हैं
एक सूरज को आग देने में।
और तमाम सूरज
आदेश देते हैं बादलों को
बारिश के छींटो से बुझा दो सारे चूल्हे और
नम कर दो हवाओं को
कि बैठी रहे धरती पर।
इंसानी रीत में धंसा सच
इतना धंस चुका कि
दिखता नहीं।

सूरज

चरणों में झुके शीश पर
पिता के हाथ धरने मात्र से
जो ऊर्जा संचारित होती थी
वो ऊर्जा इस नए साल में उगे सूरज में भी कहाँ ....