शनिवार, 16 मई 2020

पिता स्मरण

मैं पुराने अल्बमो में संजोए
फोटो देखता हूँ और
उस दृश्य में खो जाता हूँ।
मैं रिकार्ड की गई उनकी आवाज़ सुनता हूँ
और मुग्ध हो जाता हूँ।
मैं पढ़ता हूँ उनकी लिखी रचनाएं,
उनके द्वारा मुझे किए गए वे तमाम मैसेज
और मस्तिष्क में उस समय विशेष की छवि उतर जाती है।
मैं बस याद करता हूँ और पाता हूँ उन्हें अपने साथ।
आँख-कान, हॄदय, मस्तिष्क या कहूँ
देह की प्रत्येक रग और बहते रक्त में
पापा की अनुभूतियां ही तो हैं
जिसमें मैं खो जाता हूँ।
जैसे कोई खोता है अपने ईश्वर में।
मेरा ध्यान,पूजन, अर्चन, यज्ञ, तप सब केवल वही हैं
वही हैं मेरा सम्बल, मेरा विश्वास, मेरा आधार।
■ पिता स्मरण

सोमवार, 17 जून 2019

जिस पर बाबूजी बैठा करते थे।

मैं समझ नहीं पाता कि
मैं तो वहीं हूँ जो था।
किन्तु
जितने कार्य सधे
जितने तनाव घटे
जितने संकट उतरे
जितने गहरे बादल छंटे
जितने अज्ञात भय घुमड़े
जितने संकरे रस्ते गुजरे
जितने घोर अँधेरे भविष्य के हैं खड़े
सबसे कौन जीता रहा है
सबमे कौन जीला रहा है
कौन है जो पीछे खड़ा है?
सबकुछ कैसे हो रहा है?
मैं तो बस
अब उस कुर्सी पर बैठता भर हूँ
जिस पर बाबूजी बैठा करते थे।
■ टुकड़ा टुकड़ा डायरी /३ जून2019

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

सुबह अब नहीं होती

सर्दियां शुरू हो चुकी है
टुकड़ा धूप का रोज गिरता है
टैरेस पर रखी है कुर्सी
मुंडेर पर फुदकती हैं चिड़ियाएं
प्रतिदिन पानी पी रहे हैं गमलों में लगे पौधे।
चाय जब तब बन रही है
नाश्ते में दलिया भी रोज बनता है
तेल मालिश की शीशी यथावत रखी है।
हाँ, अब अखबार कोई नहीं लाता
कुर्सी पर नहीं बैठता कोई
कोई चिड़ियाओं को नहीं निहारता
वो गिर रहा धूप का मखमली टुकड़ा
व्यर्थ बह जाता है
स्नान धूप का नहीं करता कोई।
चाय में स्वाद नहीं और न ही
दलिया में मलाई डाली जाती है अब।
सचमुच पापा
आपकी सुबह तो रोज होती है मगर
बिना आपके हमारी सुबह अब नहीं होती।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/12 दिसम्बर 2018】

पापा के रहते

तू जल ले रावण
जीत लिया है तुझे
मेरे पापा के रहते ही।
अब न वो दशहरा है 
कि पापा संग जाऊं
और आतिशबाजी के साथ
फूटते रावण को देखूँ
लौटूँ तो सोना-चांदी लेकर।
परंपराएं हो चुकी पूर्ण
कि दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती थी
माँ-बहन ,
हाथ में आरती की लिए थाली और
लगाती थी मस्तक पर रोली का टीका।
कितना उत्साह और कितनी ऊर्जा
भर लेता था अपनी देह में
चरणस्पर्श के साथ ही..
-
अब तू जल ले रावण
जैसा हो जलना।
कि पिता साथ नहीं मेरे
कि उत्सव, त्यौहार ,पर्व
का वो आनन्द मिले
या झूम सकूं मैं
बेफिक्र ।
हाँ, विजयादशमी होगी
हाँ, ठीक ठीक वैसा ही सबकुछ होगा
जैसा होता आया है
जैसी परंपरा है
जैसा इतिहास है
सबकुछ में होऊंगा मैं भी
निभाउंगा परम्परा
और मनाऊंगा उत्सव ..
कि
कैलेंडर की तारीख है जैसे
खिसकती रहती है
और साल दर साल वो टँगता रहता है
जैसे सारे तीज-त्योहारों की तरह
दीवारों पर।
कि इस याद को
समझ का कोई शब्द नहीं बखान सकता।
कि कौन जान सकता है
होने - न होने के
इन एकांत, एकाकी
खामोश दिनों को..।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18अक्टूबर2018】

रविवार, 2 सितंबर 2018

कितने लड़े बिना हार रहे हैं..

मैं विधाता से लड़ न सका
जबकि लड़ना था ।
उसने पेश की थी चुनौती
और ललकारा था मुझे।
मैं अब तक की पूजा पाठों के
मायाजाल में ऐसा लिप्त रहा कि
उसकी शक्ति का प्रतिकार तक नहीं कर पाया।
ये उसका ही तो भ्रमफन्दा था जो
मेरे गले में पड़ा और मैं
उसके विधान को स्वीकार कर उसे ही पुकारता रहा।
इस उम्मीदों पर कि
धरती के देव चिकित्सक बचा लेंगे पिता को।
ये युद्ध था
जो मैं लड़े बिना हार गया ..
कितने लड़े बिना हार रहे हैं..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी /02 सितंबर/2018)

सोमवार, 2 जुलाई 2018

टुकड़ा टुकड़ा डायरी का 2 जून

दुनिया ठीक ठीक वैसी ही है
जैसी होती है ..
उसे होनी ही है
आज के दिन भी ...
किन्तु 
माँ दुनिया जैसी नहीं है
इसलिए वैसी ही नहीं हैं
जैसी वो रहती थी आज के दिन ..
---
क्या कहीं होंगे पिता ?
क्या देख पा रहे होंगे ?
बरसो बरस साथ रहने के बाद
अकेली हुई माँ को
कम अज कम आज
पहली बार
अपनी विवाह वर्षगाँठ पर??
----
बारिश बन आए तो थे
जब कड़की थी बिजलियाँ
गरजे घुमड़े थे बादल
मैंने किया था महसूस ...
पिता को भी
और माँ के नितांत अकेलेपन की
उस असह्य स्मरण वेदना को भी ..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी का 2 जून)

जिसके लिए ही हो तुम

मैं नहीं लिखता
लिख नहीं पाता
लिख ही नहीं सकता
क्योंकि वे शब्दो में समाते नहीं
और न ही मेरी भावनाएं पूर्ण हो पाती है ।
मैं अक्सर छोड़ देता हूँ दिन को
उसके अपने हाल पर।
और बैठक में रखी
कुर्सी पर बैठ कर
रात कर देता हूँ ।
जिस पर बैठा करते थे वो घण्टो
कुछ रचते , कुछ बसते ।
मैं साँसों में भरता हूँ उन्हें
दिल में उतारता हूँ
और चुपचाप गीली आँखों को पोंछते हुए उठ खड़ा होता हूँ
अंतरात्मा में उनकी उस आवाज़ के साथ
कि
उठो!
जगत तुम्हारा इन्तजार करता है
कि जिसके लिए ही हो तुम..