सोमवार, 25 दिसंबर 2017

मौन ही लिखता हूँ

मेरा लिखा
मेरा कहाँ
जो जग समझ ले
या तुम ?
इतना सरल होता तो
लिखा ही नहीं जाता
और इतना सामान्य होता तो
लिखता ही नहीं ।
जगत के प्रपंच
माया के राग
मेरा रोना नहीं ।
इसमें मेरा होना भी नहीं ।
न शक्तिहीन
न दुखी या दीन,
ये अश्रु सस्ते नहीं जो
टिप टिप रिसे।
जो छूटा है
जो गुजरा है
जो बीता है
वो आम नहीं ।
कि जगत पुचकारे
कि मैं ये चाहूं ।
और इतनी फुर्सती दुनिया भी नहीं
कि सच में ही समझ लेती है
अंतस की अग्नि ।
मैं जानता हूँ
समझता हूँ
मौन धरता हूँ ,
कि मौन ही लिखता हूँ।
(डायरी 25 क्रिसमस 2017)

अटूट विश्वास

जो जो मिला 
सब ईश्वर को समर्पित करते हुए
वो चले।
उनके इस अटूट विश्वास का 
प्रतिफल ये निकला कि
हमें लगा
वे रोग से लड़ रहे हैं ।
हम चिकित्सको के भरोसे
इस आस के साथ कि
लौट आएंगे वे पूर्ववत ।
अज्ञान थे इस बात से कि
ईश्वर सुनता उनकी है
और हम चिकित्सकों की सुनते रहे ।

रविवार, 24 दिसंबर 2017

अज्ञात भय

अब डर अधिक लगता है ,
अज्ञात भय।
पहले ईश्वर के साथ साथ पिता के होने से
बिंदास रह लेता था ।
अब पिता नहीं है
और ईश्वर का पता नहीं ।

होती थी सुबह

पिता के जागने के बाद
होती थी सुबह ।
चिड़ियाएं चहकती थी ,
सूरज निकलता था ।
अब चिड़ियाएं नहीं चहकती
किन्तु सूरज निकलता है ।
ढूंढता है
पिता को कि दिख जाएं
एकबार ।
किन्तु सुबह से रात हो जाती है .....

मौन ही लिखता हूँ

मेरा लिखा
मेरा कहाँ
जो जग समझ ले
या तुम ?
इतना सरल होता तो
लिखा ही नहीं जाता
और इतना सामान्य होता तो
लिखता ही नहीं ।
जगत के प्रपंच
माया के राग
मेरा रोना नहीं ।
इसमें मेरा होना भी नहीं ।
न शक्तिहीन
न दुखी या दीन,
ये अश्रु सस्ते नहीं जो
टिप टिप रिसे।
जो छूटा है
जो गुजरा है
जो बीता है
वो आम नहीं ।
कि जगत पुचकारे
कि मैं ये चाहूं ।
और इतनी फुर्सती दुनिया भी नहीं
कि सच में ही समझ लेती है
अंतस की अग्नि ।
मैं जानता हूँ
समझता हूँ
मौन धरता हूँ ,
कि मौन ही लिखता हूँ।

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

ईश्वर सिर्फ सुन्दर फ़्रेम है

झूठ है प्रेम , समर्पण और
एकसाथ जीने मरने की आस ।
या वो प्रेमशक्ति जो किसी सत्यवान के लिए सावित्री के पास थी ,
सब एक झूठ , सफ़ेद झूठ 
कोरी कल्पित कथा ।

मैंने देखी है 
पूरा जीवन आहूत कर देने वाली स्त्री 
पूजा ,अर्चन, व्रत -उपवास ,प्रेम और समर्पण ।
मैंने देखा है 
कंकर पत्थर , कंटीले ,संकीर्ण या संघर्ष भरे रास्तो पर
हाथ थामें साथ लेकर विजयी होते पुरुष को ।

मैंने देखा है दोनों की हार को 
दोनों के बिछड़ जाने को ।

इसमें  विधान अपनी विधि को लेकर 
अट्टाहास करता राक्षस ही लगता है ।
नहीं लगता किसी देव् की कृपा या 
जीवनभर इसी बिछड़ न जाने के लिए 
आहूत किया गया हर क्षण का फल । 

सब सच है माना 
ये भी सच स्वीकारने का भय क्यों 
कि ईश्वर तस्वीर में जड़ा 
सिर्फ एक सुन्दर फ़्रेम है ।

सब अकेले

वो बिस्तर ,
मसनद के अलावा
टेके की खातिर दो तकिए भी ,
नीचे रखा कपड़ो का बैग ,
उसके आहते में पीकदान ,
बिस्तर के पास शेल्फ में रखी कुछ पुस्तकें ,
घड़ी ,और लाए गए अखबार ,
बिस्तर पर ही पैड में जड़े कागज ,
उसके पास ग़ालिब और जौक की शायरी की किताबें , कलम और लिखे हुए कुछ कागज ....
सब अकेले
जस के तस

माँ ऐसा भी नहीं कर पाती

कितनी सारी पीड़ा 
लिखकर ,
व्यक्त कर हम बहा सकते हैं ।
माँ 
ऐसा भी नहीं कर पाती ।
वो अवेर लेती है ।
और हमें लगता है
समय सब ठीक कर देता है ।

जीत यही है मेरी ।

उंगली पर सुदर्शन घुमाता है
और दो दो हाथ में
हमेशा वो भारी पड़ता है ।
हारता ही हूँ मैं ।
पर हाथ भी उसका ही पकड़ा है
संतोष इसका है मुझे ।
जीत यही है मेरी ।

विधान की नोंक पर

जान सका हूँ कि
यदि ईश्वर है तो वो
सफेद भेष में
एक कुख्यात डाकू है ।
जो जीवन की जमा पूंजी 
विधि के विधान की नोंक पर
लूटता है ।
( मज़ा ये कि किस्से कहानियों में डाकू भी पूजे गए हैं )

ये जो दर्द है

ये जो दर्द है
मेरी ही चौखट पर नहीं है ।
नया कुछ भी नहीं ।
बावजूद कोई इस दर्द की
दवा न ढूंढ सका ।
वो ईश्वर नाम का तत्व भी नहीं ।
और इठलाता ये विज्ञान भी नहीं ।
फिजूल दम्भ भरते हैं !

कमजोर ईश्वर

सिर झुकाए
निढाल कंधो से
पीठ किये जाते देखा है
एक पराजित और कमजोर ईश्वर को ।
जाने दिया
छोड़ दिया वैसे का वैसा ही
जैसा वो था ।
कि उसे जग वाले मिथ्या न समझ बैठे ।

​सूरज ने खो दी है अपनी सुबह

सूरज रोज ही उदय होता है
किन्तु अब सुबह नहीं होती।
सुबह होती थी
जै जै , जय सियाराम 
और उनके चरण स्पर्श से।
जीते रहो के आशीर्वाद से
और मुस्कुराते हुए उस चहरे से
जो कहता था
उठ गए.... बेटा।
​सूरज ने खो दी है अपनी सुबह । 

ये स्मृतियां हैं ।

ये दुःख नहीं है
ये स्मृतियां हैं ।
उस विराट , अविजित व्यक्तित्व की
जो मेरे चारों तरफ
मेरे रोम रोम में 
कण कण में व्याप्त हैं ।
जहां जहाँ प्रकाश पड़ रहा है
और आँखों में रिफ्लेक्ट हो रहा है
वहां वहां पिता हैं ।
जहाँ प्रकाश नहीं है
वहां दीए के रूप में वे जगमगा रहे हैं ।
उन्हें कौन समझा?
कौन समझेगा ?
वो क्या थे ,
ये बखान ही नहीं किया जा सकता ।
ठीक ठीक वैसे ही जैसे किसी देवता या ईश्वर को
उसके रहस्य को नहीं समझा जा सकता ।
लीलाएं थी ।
संघर्ष में कैसे विजयी रहना है ,
धैर्य कैसे रखा जा सकता है ,
ज्ञान क्यों नहीं प्रचारित करना चाहिए ,
गीता आखिर क्या है
अपार अध्ययन और लेखन का ध्येय क्या होता है ,
स्वयं को सहज और सरल बनाए रखना
कितना आवश्यक है ,
मुसीबतों , परेशानियों और समस्याओं से होकर
जीना क्या है ,
उसका आनंद क्या है ,
जीवन का मूल स्वरूप कैसा है
ढेर ढेर सारा बोध अपने पूरे
जीवन से प्रकट करते हुए क्या उन तमाम लीलाधारियों ने जगत को नहीं दिया ?
किन्तु लिया कितनो ने ?
पिता और शास्त्रों में वर्णित सारे देवताओं ,ईश्वरो ,उनकी लीलाओं का
एक एक कृत्य समान सा अनुभव हो रहा है ।
ऐसे विराट पुरुष को
मेरे शब्द कभी व्यक्त नहीं कर सकते ।
वो अंतर्मन में बह ही सकते हैं ।
बह भी रहे हैं , और इसी बहाव में खुद को निश्चिन्त छोड़ दिया है ।
जागतिक सोच से परे पिता का विराट व्यक्तित्व
कृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड दर्शन का पर्याय ही है ।
वो यशोदा सौभाग्यशाली थी ,
कितनी थी
इसका भान मेरे लिए अब आसान है
क्योंकि मैं जान पाया हूँ इतना तो कि
मेरे कृष्ण , मेरे राम , मेरे पिता
सब एक ही तो रहे ।