सोमवार, 17 जून 2019

जिस पर बाबूजी बैठा करते थे।

मैं समझ नहीं पाता कि
मैं तो वहीं हूँ जो था।
किन्तु
जितने कार्य सधे
जितने तनाव घटे
जितने संकट उतरे
जितने गहरे बादल छंटे
जितने अज्ञात भय घुमड़े
जितने संकरे रस्ते गुजरे
जितने घोर अँधेरे भविष्य के हैं खड़े
सबसे कौन जीता रहा है
सबमे कौन जीला रहा है
कौन है जो पीछे खड़ा है?
सबकुछ कैसे हो रहा है?
मैं तो बस
अब उस कुर्सी पर बैठता भर हूँ
जिस पर बाबूजी बैठा करते थे।
■ टुकड़ा टुकड़ा डायरी /३ जून2019