शनिवार, 27 जनवरी 2018

मैं खुद

मैं खुद उनके
मोबाइल से
उनके अकाउंट से
कर देता हूँ खुद की पोस्ट पर
लाइक
और फिर देखता हूँ अपनी पोस्ट पर
उनका नाम ...
उनका नाम ही मेरा अस्तित्व है
मेरा जीवन है
जैसे
जय सिया राम ।

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

वीतराग

यूं तो सब है
सब कुछ है
किन्तु कुछ भी नहीं है ।
'कुछ भी नहीं' भी एक होना है 
इस होने में कुछ है
जो न राग है , न वैराग्य है
सिर्फ वीतराग है।

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

किन्तु होता है

छोड़ देना
सबसे सही निर्णय होता है
और जो निर्णय होता है उसमे बंध जाना
कि मैंने छोड़ा
उस छोड़ देने को फिर से पकड़ना होता है ।
फिर से पकड़ना मत
क्योंकि इसमें ज्यादा गोंद लगा होता है
चिपक जाता है मोह की तरह।
छोड़ देना ,
खाली हो जाना
खाली होना भी आकाश होना है
आकाश बन जाना है
चाहे कोई उसे चीरते हुए रॉकेट भेजे
या अपनी पतंगे उड़ाए
उसने तो त्यागा है
धरती का लालच
और अपने ऊपर रचा वो सारा सौरमंडलीय आकर्षण
जिसमे चाँद-सूरज सारे ग्रह -नक्षत्र वास करते हैं।
सबकुछ हुआ करे , पर वो तो है
निस्संग , बेरंग।
दरअसल
कठिन होता है
फक्खड़पना लिए जीना
किन्तु होता है।

बस्स

अब न दुनियादारी का मज़ा
न बहस मुबाहस का
ये रंग नहीं सुहाता अब।
अब कुछ नहीं
अब बस मैं हूँ और मेरी अपनी दुनिया है।
कुछ किताबें हैं , कुछ यादें हैं
कुछ कहानियां, कुछ कविताएं
नदी है , ताल है
पर्वत है , डगर है
कांटे है , फूल है
कुछ सन्नाटे हैं , कुछ मौन है
कुछ अँधेरे हैं, कुछ लौ है
एक सफर है , एक न मालूम सा उद्देश्य है
बस्स।
....... जो दिख रहा 'मैं' है
वो भ्रम है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं ।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

हार्ट अटैक उसे नहीं कहते

डायनिंग टेबल सिर्फ भोजन के लिए नहीं थी
व्यासपीठ की तरह थी
जो खाली पड़ी है ।
यहीं देर तक बात होती थी,
यहीं होती थी डिस्कस...
ढेर सी ज्ञानवर्धक वार्ताओं का स्वाद भी
उतर आता था भोजन में
जो अब नहीं है।
वो टीवी बन्द है
अब नहीं लगते चैनल
समाचार , खेल , भागवत या रामकथाएं
नहीं होती व्याख्याएं
श्लोक आदि इत्यादि के मूल भाव
समझाने वाला कोई नहीं।
समाचार के बाद या उसके बीच राजनीतिक या सामाजिक कितनी सारी बातें
मेरे आलेखों में नहीं उतरती या मैं लिखता ही नहीं अब।
खेल का आनंद ,
मैच का रोमांच और
देश की जीत का जो जश्न हुआ करता था उनके संग
सब , सारा गुम गया है ।
अलसुबह अब चिड़ियाएं भी नहीं चहकती
जिनकी नींद ही उनके जागने के बाद खुलती थी ।
वो मोबाइल मौन पड़ा है
जिससे और जिनपर उनके और मेरे संवाद थे ।
फेसबुक या व्हाट्स एप की बीप उससे नहीं आती अब ।
और न ही वो आवाज़ कि बेटा इसे चार्ज पर रख दो ।
अब सिर्फ अलगनी है
खाली डोर ।
नहीं सूख रहे हैं वस्त्र ।
जिस साबून से वे अपने कपड़े धोते रहे
वो सूख रही है वहीं जहाँ वो रखते थे ।
इस्त्री किए , सलीके से जमी हुई उनकी पोशाकें
करीने से जमी हुई है बैग में ।
बैग वो भी अकेला है
जिसकी जिप बार बार खुलती थी
कभी माँ की दवाओं के लिए ,
कभी ग्लूकोज या इलेक्ट्रॉल के लिए ।
वो तांबे की लुटिया खाली रखी हुई है
जिसमे जल भर दिया करता था मैं ।
मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद
बने कई चश्मे
अपनी अपनी खोल में दुबके पड़े हैं वहीं
जहाँ वो अवेर के रखते थे ।
और ये सब मेरे जीवन की रगों में
बहने वाला वो रक्त था जो बिना ब्लॉकेज के अनवरत दौड़ रहा था ।
हार्ट अटैक उसे नहीं कहते जो आदमी को आता है
उसे कहते हैं जिसका जीवन पिता के साए में हो
और अचानक सबकुछ स्थिर हो जाए ।
अचानक रुक जाए ।
अचानक जैसे सबकुछ ठहर जाए ।
अचानक सबकुछ स्मृतियां बन जाए ।

रविवार, 14 जनवरी 2018

सफर ही सूर्य

ठिकानों की तलाश में
भटकने से अच्छा है
सफर का आनंद लेना।
देखो 
सूरज भी उत्तरायण हो गया।
अपने ही अक्ष पर घूमना
या आकाश गंगा के केंद्र की परिक्रमा करना
आसान नहीं होता।
पूरे २५ करोड़ वर्ष लगते हैं
और फिर फिर यही परिक्रमा भी।
न थकना , न हारना
निरंतर गतिमान।
जो निरंतर गति में रहता है
वो सूरज है ,
वो सौर मंडल का अवयव हैं।
कितने सारे रासयनिक विस्फोटो से धधकता
खुद जलता , फिर जलता
जल जल जीवन देता
सबकुच्छ उसकी गति में निहित है
उसकी गति से ही है।
दरअसल
सफर ही जीवन है
सफर ही सूर्य है
मंजिल सूर्य नहीं
क्योंकि मंजिल जीवन को
भस्म कर देती है,
ठीक सूरज की तरह
जो भी उसके करीब गया।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

पापाजी

मैं जानता हूँ
चाहतें पूरी नहीं होती,
क्योंकि
विधान का संतुलन बिगड़ जाता है
क्योंकि
विधि के लिए सब जायज होता है
क्योंकि
सत्ता मानव की नहीं होती है...
फिर भी चाहता हूँ ।
मैं जानता हूँ
शास्त्रों की बातें
कृष्ण से लेकर गीता के आख्यान
और लोग बागों की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाहें
जीवन दर्शन और उसके वैज्ञानिक सूत्र
सब जानता हूँ
किन्तु
फिर भी चाहता हूँ ।
चाहता हूँ
एक बार फिर से पूछूं
पापाजी चाय पिएंगे !
एक बार फिर से आवाज़ सुन लूं
बेटे यहाँ आओ ।
एक बार फिर से बोलूं
आज कितनी दूर तक घूमने गए थे ?
एक बार फिर बुलाऊँ
भोजन के लिए चलिए .....
एक बार फिर ....
जानता हूँ
ऐसा कुछ सम्भव नहीं ।
किन्तु नहीं जानना चाहता
नहीं समझना चाहता
और नहीं मानना चाहता कि
पिता की मृत्यु भी होती है ।
एक नितांत अकेलापन है
अबूझ पहेली सा भटकाव है
और ये ही अच्छा है ।
जानकर समझ कर जब
कोई नहीं पा सका सुकून
तो न जानकर, न समझकर ही अच्छा है ।
न सुकून पाने की लालसा और
न ही सत्य का बोध कि
वे नहीं ही है ..
किन्तु देखो न
दो महीने हो गए उनकी न आवाज़ सुनी है
न मैंने उन्हें देख पुकारा है - पापाजी ।

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

कितने सारे सूरज
अपने चूल्हे को भूल जाते हैं
जिसने उन्हें तपाया
निखारा और आसमान पर पहुंचाया।
कितनी सारी लकड़ियां
जलकर, राख बनकर
हवा में विलीन हो जाती हैं
एक सूरज को आग देने में।
और तमाम सूरज
आदेश देते हैं बादलों को
बारिश के छींटो से बुझा दो सारे चूल्हे और
नम कर दो हवाओं को
कि बैठी रहे धरती पर।
इंसानी रीत में धंसा सच
इतना धंस चुका कि
दिखता नहीं।

सूरज

चरणों में झुके शीश पर
पिता के हाथ धरने मात्र से
जो ऊर्जा संचारित होती थी
वो ऊर्जा इस नए साल में उगे सूरज में भी कहाँ ....