सोमवार, 2 जुलाई 2018

टुकड़ा टुकड़ा डायरी का 2 जून

दुनिया ठीक ठीक वैसी ही है
जैसी होती है ..
उसे होनी ही है
आज के दिन भी ...
किन्तु 
माँ दुनिया जैसी नहीं है
इसलिए वैसी ही नहीं हैं
जैसी वो रहती थी आज के दिन ..
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क्या कहीं होंगे पिता ?
क्या देख पा रहे होंगे ?
बरसो बरस साथ रहने के बाद
अकेली हुई माँ को
कम अज कम आज
पहली बार
अपनी विवाह वर्षगाँठ पर??
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बारिश बन आए तो थे
जब कड़की थी बिजलियाँ
गरजे घुमड़े थे बादल
मैंने किया था महसूस ...
पिता को भी
और माँ के नितांत अकेलेपन की
उस असह्य स्मरण वेदना को भी ..
(टुकड़ा टुकड़ा डायरी का 2 जून)

जिसके लिए ही हो तुम

मैं नहीं लिखता
लिख नहीं पाता
लिख ही नहीं सकता
क्योंकि वे शब्दो में समाते नहीं
और न ही मेरी भावनाएं पूर्ण हो पाती है ।
मैं अक्सर छोड़ देता हूँ दिन को
उसके अपने हाल पर।
और बैठक में रखी
कुर्सी पर बैठ कर
रात कर देता हूँ ।
जिस पर बैठा करते थे वो घण्टो
कुछ रचते , कुछ बसते ।
मैं साँसों में भरता हूँ उन्हें
दिल में उतारता हूँ
और चुपचाप गीली आँखों को पोंछते हुए उठ खड़ा होता हूँ
अंतरात्मा में उनकी उस आवाज़ के साथ
कि
उठो!
जगत तुम्हारा इन्तजार करता है
कि जिसके लिए ही हो तुम..