शनिवार, 15 दिसंबर 2018

सुबह अब नहीं होती

सर्दियां शुरू हो चुकी है
टुकड़ा धूप का रोज गिरता है
टैरेस पर रखी है कुर्सी
मुंडेर पर फुदकती हैं चिड़ियाएं
प्रतिदिन पानी पी रहे हैं गमलों में लगे पौधे।
चाय जब तब बन रही है
नाश्ते में दलिया भी रोज बनता है
तेल मालिश की शीशी यथावत रखी है।
हाँ, अब अखबार कोई नहीं लाता
कुर्सी पर नहीं बैठता कोई
कोई चिड़ियाओं को नहीं निहारता
वो गिर रहा धूप का मखमली टुकड़ा
व्यर्थ बह जाता है
स्नान धूप का नहीं करता कोई।
चाय में स्वाद नहीं और न ही
दलिया में मलाई डाली जाती है अब।
सचमुच पापा
आपकी सुबह तो रोज होती है मगर
बिना आपके हमारी सुबह अब नहीं होती।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/12 दिसम्बर 2018】

पापा के रहते

तू जल ले रावण
जीत लिया है तुझे
मेरे पापा के रहते ही।
अब न वो दशहरा है 
कि पापा संग जाऊं
और आतिशबाजी के साथ
फूटते रावण को देखूँ
लौटूँ तो सोना-चांदी लेकर।
परंपराएं हो चुकी पूर्ण
कि दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती थी
माँ-बहन ,
हाथ में आरती की लिए थाली और
लगाती थी मस्तक पर रोली का टीका।
कितना उत्साह और कितनी ऊर्जा
भर लेता था अपनी देह में
चरणस्पर्श के साथ ही..
-
अब तू जल ले रावण
जैसा हो जलना।
कि पिता साथ नहीं मेरे
कि उत्सव, त्यौहार ,पर्व
का वो आनन्द मिले
या झूम सकूं मैं
बेफिक्र ।
हाँ, विजयादशमी होगी
हाँ, ठीक ठीक वैसा ही सबकुछ होगा
जैसा होता आया है
जैसी परंपरा है
जैसा इतिहास है
सबकुछ में होऊंगा मैं भी
निभाउंगा परम्परा
और मनाऊंगा उत्सव ..
कि
कैलेंडर की तारीख है जैसे
खिसकती रहती है
और साल दर साल वो टँगता रहता है
जैसे सारे तीज-त्योहारों की तरह
दीवारों पर।
कि इस याद को
समझ का कोई शब्द नहीं बखान सकता।
कि कौन जान सकता है
होने - न होने के
इन एकांत, एकाकी
खामोश दिनों को..।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18अक्टूबर2018】