शनिवार, 15 दिसंबर 2018

पापा के रहते

तू जल ले रावण
जीत लिया है तुझे
मेरे पापा के रहते ही।
अब न वो दशहरा है 
कि पापा संग जाऊं
और आतिशबाजी के साथ
फूटते रावण को देखूँ
लौटूँ तो सोना-चांदी लेकर।
परंपराएं हो चुकी पूर्ण
कि दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती थी
माँ-बहन ,
हाथ में आरती की लिए थाली और
लगाती थी मस्तक पर रोली का टीका।
कितना उत्साह और कितनी ऊर्जा
भर लेता था अपनी देह में
चरणस्पर्श के साथ ही..
-
अब तू जल ले रावण
जैसा हो जलना।
कि पिता साथ नहीं मेरे
कि उत्सव, त्यौहार ,पर्व
का वो आनन्द मिले
या झूम सकूं मैं
बेफिक्र ।
हाँ, विजयादशमी होगी
हाँ, ठीक ठीक वैसा ही सबकुछ होगा
जैसा होता आया है
जैसी परंपरा है
जैसा इतिहास है
सबकुछ में होऊंगा मैं भी
निभाउंगा परम्परा
और मनाऊंगा उत्सव ..
कि
कैलेंडर की तारीख है जैसे
खिसकती रहती है
और साल दर साल वो टँगता रहता है
जैसे सारे तीज-त्योहारों की तरह
दीवारों पर।
कि इस याद को
समझ का कोई शब्द नहीं बखान सकता।
कि कौन जान सकता है
होने - न होने के
इन एकांत, एकाकी
खामोश दिनों को..।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18अक्टूबर2018】

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