बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

मैं चूक गया

पिता के साथ जाना चाहता था चित्रकूट।
योजना बनी , कई बार बनी,
और टलती गई।
किंतु विश्वास था कि
एक दिन ज़रूर जाना होगा
पिता के साथ चित्रकूट।
पिता के साथ
ऐसी किसी भी जगह जाना
केवल जाना , घूमना और
दर्शन मात्र ही नहीं होता था,
वरन् होता था , उस स्थल को
उसके पूरे इतिहास के साथ
जान लेना ,
उसे उसकी पूरी विहंगमता के साथ
महसूस कर लेना
अंतरतम में समा लेना।
और यही तो होता है असल में
ऐसी किसी भी यात्रा पर
'जाने' का अर्थ।
किसी भी तीर्थ या धाम को
'करने' का सार्थक्य ।
पिता उस काल को
सम्मुख उपस्थित कर दिया करते थे
अपनी अद्भुत स्मरणशक्ति और
अपनी अतुल्य वृक्तृत्व शैली से।
पिता में यह कोई जादू था
या उन्हें कोई ईश्वरीय वरदान प्राप्त था ,
नहीं जानता।
किंतु उनके साथ यात्रा करना
जीवन का सफलतम समय होता था।
ऐसी कतिपय यात्राएँ मेरे अंदर
आज भी सजीव हैं।
आज भी उनके शब्द-चित्र
मेरे भीतर मुखर हैं।
वे मेरे एकांत के पवित्र साथी हैं
वे मेरी चुप्पियों के आह्लादित स्वर हैं ।
पिता के साथ की गई मेरी
हर धाम की यात्रा की रज
आज भी मेरे मन-मस्तिष्क को
पावन करती है।
पिता के साथ की गई मेरी
हर तीर्थ यात्रा के जल से
आज भी मैं वैचारिक स्नान
किया करता हूँ ।
पिता भी चाहते थे कि
मैं उनके साथ चित्रकूट
भाव और विचार की कुछ
पूँजी लेकर जाऊँ।
इसीलिये उन्होंने समय-समय पर
बातचीत के ज़रिये मेरे हृदय में
एक ललक पैदा कर दी थी
चित्रकूट जाने की।
जो उत्तरोत्तर तीव्र उत्कंठा में
बदल गई थी।
लेकिन , शायद राम ही नहीं चाहते थे
कि मैं पिता के साथ चित्रकूट जाऊँ।
और अब मेरे लिये
चित्रकूट मात्र
पौराणिक और काल्पनिक कथाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं।
अब क्या मिलेगा मुझे चित्रकूट में
सिवाय पत्थरों , नदी-तालों के
सिर्फ़ कथाओं के लिपिबद्ध ज्ञान
और उनके रटे-रटाये
खोखले शब्दोच्चारण के।
और यह सब मेरे लिये अर्थहीन है
वहाँ मेरे लिये अब.कुछ नहीं ।
मुझे तो उस.राम-स्थल में रमना था
वह चित्रकूट देखना था
जो सदैव सजीव है।
जो है , पर दीखता नहीं।
क्योंकि वह दिव्य है , अलौकिक है।
वह इन चर्मचक्षुओं से
भला कब और किसे संभव हुआ है दीखना
वह तो मुझे पिता की वाणी के प्रताप से ही
दृष्टिगोचर होना था ,
वह तो मुझे पिता के साहचर्य से ही
अनुभूत होना था ।
लेकिन,
मैं चूक गया पिता ..
मैं चूक गया चित्रकूट जाना।
मैं चूक गया चित्रकूट पाना ।
मैं चूक गया ।
(फागुन डायरी के बेरंग पन्ने- 01-03-2018)

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

मां अब चाय नहीं बनाती है

अलस्सुबह
नहीं आती किचन से आवाज
खटपट की
माँ अब चाय नहीं बनाती है।
मेरी नींद प्रतिदिन खुलती है
या प्रतिदिन अलस्सुबह उठ जाता हूँ
इसलिए कि वो खटपट की आवाज आएगी।
देर तक अपने कान किचन की ओर लगाए रखता हूँ
कि अचानक स्मरण होता है
माँ अकेली है
सो रही है।
उनके बगल वाले बिस्तर पर नहीं हैं पिता।
जो उठते थे
माँ को आवाज लगाते थे
किचन में जाकर माँ
चाय बनाती थी
पिता अपने नित्य कर्म में जुट जाते थे
माँ और सुबह होने के इन्तजार में
फिर लेट जाया करती थी।
खटपट की आवाज जैसे मौन हुई है
वैसी ही मौन हुई हैं माँ।
​हम सब अपने आप को व्यस्त रखने में समर्थ हैं
और जिनकी व्यस्तताएं ही पिता से थी
उनके लिये सारी समर्थताओं के अर्थ ही निरर्थक हैं ।
माँ
अब हम बच्चों के लिये
हँसती है
बातें करती है
जीती है....
मां
अब चाय नहीं बनाती है।

प्रतीक्षा है ..

प्रतीक्षा है ..
जब बेटी ने पूछा था बब्बा से
मृत्यु पश्चात कहाँ जाते हैं हम ?
उत्तर था , ये तो उसके बाद ही जाना जा सकता है ।
किन्तु कहा नहीं था
कि ये तो उसके बाद ही बताया जा सकता है ।
निश्चित हुआ कि
जाना जा चुका है ..
ये तय न था, न है कि
बताया जाएगा ...

फिर भी उत्तर की प्रतीक्षा में है बेटी
मैं इस इन्तजार में कि
जानी हुई हर चीज पिता ने बताई है
ये भी बताएंगे ..

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

ठीक ठीक वैसे ही चरण हैं

ठीक ठीक वैसे ही चरण हैं
जैसे थे पिता के
और मस्तक पर हाथ का आभास
दिल तक सुकून पहुंचाता है
सच है
पिता छोड़ जाते हैं अपनी प्रतिकृति
भाई की शक्ल में।
यूं ही नहीं पूरा जगत था
राम के रूप में
भरत-लक्ष्मण -शत्रुघ्न का।