शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

पापाजी

मैं जानता हूँ
चाहतें पूरी नहीं होती,
क्योंकि
विधान का संतुलन बिगड़ जाता है
क्योंकि
विधि के लिए सब जायज होता है
क्योंकि
सत्ता मानव की नहीं होती है...
फिर भी चाहता हूँ ।
मैं जानता हूँ
शास्त्रों की बातें
कृष्ण से लेकर गीता के आख्यान
और लोग बागों की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाहें
जीवन दर्शन और उसके वैज्ञानिक सूत्र
सब जानता हूँ
किन्तु
फिर भी चाहता हूँ ।
चाहता हूँ
एक बार फिर से पूछूं
पापाजी चाय पिएंगे !
एक बार फिर से आवाज़ सुन लूं
बेटे यहाँ आओ ।
एक बार फिर से बोलूं
आज कितनी दूर तक घूमने गए थे ?
एक बार फिर बुलाऊँ
भोजन के लिए चलिए .....
एक बार फिर ....
जानता हूँ
ऐसा कुछ सम्भव नहीं ।
किन्तु नहीं जानना चाहता
नहीं समझना चाहता
और नहीं मानना चाहता कि
पिता की मृत्यु भी होती है ।
एक नितांत अकेलापन है
अबूझ पहेली सा भटकाव है
और ये ही अच्छा है ।
जानकर समझ कर जब
कोई नहीं पा सका सुकून
तो न जानकर, न समझकर ही अच्छा है ।
न सुकून पाने की लालसा और
न ही सत्य का बोध कि
वे नहीं ही है ..
किन्तु देखो न
दो महीने हो गए उनकी न आवाज़ सुनी है
न मैंने उन्हें देख पुकारा है - पापाजी ।

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