सोमवार, 2 अप्रैल 2018

निष्ठुर शब्द

व्यतीत हो चुके क्षणों को
शब्द देकर कागज पर
उतारना
फिर से जगाना होता है
अपने अतीत को।
कि जैसे पूर्वजन्म को देख लेने की जिज्ञासा
और देखकर भयभीत हो जाना
व्यथित हो जाना, विक्षिप्त हो जाना होता है।
सुख ही नहीं होते कि
मुस्कुराते रहें।
पीड़ा भी होती है जिसे
पुनः जीना होता है।
जैसे जख्म पर नमक।
लिखना और बीते पलों को
जीना जरूरी है एक लेखक के लिए।
लेखक पीछे छूटा हुआ ही लिखता है ।
वह नया कुछ नही लिख पाता
हो चुके को शब्द देता है बस्स।
और ये ठीक वैसा भी होता है
कभी कभी कि
जैसे जहर का काट जहर।
वो दिन, वो समय और वो काल
रह रह कर मंडराते हैं
इस छोटे से मस्तिष्क के आसपास
और रह रह कर कसमसा उठता हूँ मैं
कि काश! ये हो जाता तो वैसा नहीं होता
वैसा हो जाता तो ये नहीं होता
और सबकुछ
जैसा अभी है
जैसा घटना से पूर्व था
वैसा ही साक्षात हो जाता।
किन्तु समय लौटता कब है ।
लौटता तो लिख कर भी नहीं है
जबकि लिखता हूँ वही सब जो हुआ
और जिन्दा कर लेता हूँ यादों को
कि अब कुछ ऐसा हो जाए कि
जो चाहा नहीं था और हुआ
वो अब न हो ।
पर आख़िरी में शब्द भी ठहरते हैं समय के गुलाम ही।
शब्द पिता को नहीं लौटा लाते
कितने निर्मम होते हैं वो ...
कितने निष्ठुर , निर्मोही

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