गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

मेरी स्मृतियों के लिए

छुट्टियां मिलना और छुट्टियां लेने में अंतर् होता है। मिलना संस्था के कैलेंडर पर टंगा रहता है , वर्षभर में एकाध। किन्तु छुट्टियां लेना हमेशा बहुत कशमकश , जद्दोजहद वाला मामला होता है। नौकरी में सबके लिए ही छुट्टियां लेना विकट समस्या होती है। बहरहाल, एक तो अपने कार्य में मुझे आनंद प्राप्त होता था और वो सर्वोपरि था दूसरे छुट्टियां लेने का मेरा एकमात्र मकसद होता था कि घर दौड़ कर चला जाऊं , माता-पिता के पास। मैंने अपने नौकरी वाले दिनों में जितनी भी छुट्टियां ली वो सारी की सारी माता-पिता के संग रहकर व्यतीत की। मुझे कहीं और जाना कभी नहीं भाया और न चाहा। काम के सिलसिले में जरूर अतिरिक्त भ्रमण हुए किन्तु मेरे लिए छुट्टियां मतलब माता-पिता के पास ही होना होता था। छुट्टियां लेने के लिए जद्दोजहद, मिल जाए तो गुदगुदी और जल्द भागकर घर जाने की उत्कंठा वाले दिन कितने सुनहरे होते थे , ट्रेन की रिजर्वेशन न होने के बावजूद जनरल की भीड़ में घुसना या बस से टुकड़े टुकड़े सफर कर पहुंचना , मुम्बई से माता-पिता तक पहुंचने के बीच वाले हर क्षण को जैसे शीघ्र व्यय कर लूँ , उड़ जाऊं और जल्द से जल्द पहुंच जाऊं घर जैसे उतावलेपन का दौर भी कितना अनोखा और अद्भुत रहता था। कितनी सारी मानसिक योजनाएं बनती थी। पिता के साथ रहूँगा , माँ के हाथों का भोजन लूँगा, ये करूंगा-वो करूँगा , पता नहीं कितनी सारी योजनाएं। लेकिन हर बार कुछ न कुछ छूट ही जाता था कि ये नहीं हुआ , वो नहीं हो पाया और छुट्टियां खत्म होने को आ गयी। मुझे स्मरण है हर वो क्षण जब लौटने का वक्त आता था। कैसा तो भी दिल हो जाता था। न लौटने , छुट्टियां बढ़ जाने, या बढ़ा लेने , माता-पिता से दूर जाने की सोच दिल बैठाती रहती थी , किन्तु वो दिन तो आता ही था। मैं जाता ही था। पिता से अधिक माँ के लिए मेरा लौटना अधिक कष्टकारी होता था किन्तु दोनों ने कभी मुझे मेरे कार्यों में किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं आने दिया। मुझे दृढ़ इच्छा शक्ति वाला बनाया। धैर्य और मजबूती से अपने धर्म-कर्म के प्रति ईमानदार बने रहने वाला सिखाया , स्वाभिमान के साथ जीना और आत्मविश्वास की साँसे लेना उन्ही से मुझमे समाहित हुआ। जितना जो कुछ कर सका हूँ, या करता हूँ या कहूँ जीता हूँ उसकी धुरी तो वे ही हैं । और जब मैं इस तस्वीर को देखता हूँ - जो लगभग १९-२० वर्ष पुरानी है तो छुट्टियां लेने वाली सारी परिस्थितियां , सारा माहौल और घर पहुँचने , पहुंचकर रहने वाला पूरा का पूरा समय आँखों के सामने नाचने लगता है। उन दिनों मोबाइल होते नहीं थे। कैमरे आदि का विशेष ध्यान होता नहीं था। तस्वीरें खींचना तो बस सौभाग्य होता था कि कोई कभी ऐसा आ जाए जिसके पास या तो कैमरा हो या वो तस्वीर लेने ही आया हो। ऐसा ही एक क्षण था यह तस्वीर वाला। पिता के साथ बैठना, विशेष यह था कि उनकी उस जगह पर बैठना जहां उनका पूरा संसार बिछा होता था, मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होती थी। ( ये तखत आज भी है हमारे पास , उनकी किताबों वाले संसार सहित ) और उनका हाथ सिर पर होने जैसी एकाध तस्वीर ही है जो पूरी तरह अनौपचारिक और नैसर्गिक है जिसे बस किसीने क्लिक कर दिया था शायद मेरी स्मृतियों के लिए। ये तो स्मरण नहीं है कि किसने ये तस्वीर खींची थी किन्तु उसे आज लिख कर अपना धन्यवाद प्रकट करना चाहा है। उसे ह्रदय से कोटि कोटि धन्यवाद प्रेषित करता हूँ।

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