गुरुवार, 8 मार्च 2018

( संस्मरण -1)

अहा ! पूज्य पिताजी की लेखनी हो और मन डूबे न ऐसा सम्भव ही नहीं होता ! उनके द्वारा रचित 'नवीन' और उनका काव्य" नामक एक शोध प्रबंध वर्ष 1963 में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ था । मेरे पास धरोहर है। इस पुस्तक को पढ़ रहा हूँ और उस काल में डुबकी लगा रहा हूँ जिसमे साहित्य का अमृत घुला हुआ है। पिताजी ने कुछ संस्मरण भी इसमें शामिल किए हैं , दिसंबर 1959 में पिताजी दिल्ली गए जहाँ बालकृष्ण नवीन के समक्ष ही उन्होंने इस प्रबंध को पढ़कर सुनाया था और सहमति प्राप्त की थी । दिल्ली में ही पिताजी से श्री बनारसी दास चतुर्वेदी और श्री रामधारी सिंह दिनकर जैसे साहित्यकार भी मिले जिन्होंने पिताजी के प्रबंध पर अपनी सम्मति दी। पिताजी ने चर्चाओं के दौरान कई बार अपने उन दिनों को साक्षात किया था और मुझे लगता वही दिन थे जब उच्च कोटि के साहित्यकार इस धरा पर विचरण करते थे। मैं ये बहुत बाद में जान पाया कि आज के दौर में पिता अपने किसी साहित्य प्रकाशन के प्रति उदासीन क्यों रहे ! खैर ...
उन दिनों के किसी भी साहित्यकार की काव्य विवेचना करना सरल नहीं था । जब मैं पिताजी द्वारा लिखित इस प्रबंध को पढ़ रहा हूँ तो लग रहा है कितना अध्ययन किया होगा, कितनी सूक्ष्म नज़र रही होगी और साहित्य का कैसा तो अथाह ज्ञान मस्तिष्क में रहा जो शब्द शब्द से किसी निर्मल गंगा सा बहते हुए पन्नो पर उतरा है ...
मैं ये सोच सकता हूँ कि जिन दिनों हजारी प्रसाद, निराला, दिनकर जैसे साहित्यकारों का बोलबाला रहा होगा उन दिनों आपकी कोई साहित्य निधि यदि थोड़ी भी कहीं से कमजोर रह जाए तो उसका टिक पाना कठिन हो जाता है ..ऐसे दौर में ऐसे ही साहित्यकारों के मध्य पिता की कलम अपने पूरे अधिकार के साथ चली , सराही गई और सम्मानित हुई मेरे लिए गर्व का विषय है। सोचता हूँ काश घर गृहस्थी के जंजाल पिता को न फांसते तो अच्छा रहता ...पर ये पिता ही थे जिन्होंने रंच मात्र भी अपने दायित्वों, कर्तव्यों से मुख नहीं मोड़ा और कभी अपने इस लगभग छूट गए अवसरों का शोक व्यक्त नहीं किया ..
ढेर ढेर सारी कृतियाँ लिखी हुई हैं, कितने ही शोध और कितने ही विषयों पर अध्ययन का जो लिखा पुलिंदा है , मेरे पास धरोहर के रूप में है । मुझे दुःख हुआ था तब जब पिताजी द्वारा ऐसे ही लिखे ढेरो ढेर कागज के बंडल जला दिए गए ये कहते हुए कि रद्दी बहुत हो गई है, अब इनका कोई काम भी नहीं , कागज पुराने होकर कट फटने लगे हैं ...
जो जो अच्छी हालत में थे , जिद कर मैंने उन्हें अवेर लिए ..वे ही इतने हैं कि यदि मैं अध्ययन करने बैठ जाऊं तो बरसो बरस हो जाएं । आज सोचता हूँ हम भाइयों ने चुपके से ही सही उनकी कुछ कविताओं को उनसे नज़रें बचाकर पुस्तकाकार रूप दे दिया तो वे जिल्द सहित संग्रहणीय हो गई। अन्यथा प्रकाशन संबंधी किसी तरह का मोह पिताजी में कभी रहा नहीं था।
बहरहाल ,एक तरफ दिनकर जी अपनी हुंकार से जन जीवन में नवप्राण डाल रहे थे तो दूसरी ओर नवीन जी उन प्राणों में अपनी लेखनी से जनशक्ति संप्रेषित कर रहे थे.. उनके शोध प्रबंध से ही प्राप्त नवीन जी की ये पंक्तियां देखिए जो आज भी प्रासंगिक लगती हैं -
"ओ भिखमंगे, अरे पतित तू, ओ मजलूम , अरे चिर दोहित ,
तू अखण्ड भंडार शक्ति का , जाग अरे निद्रा -सम्मोहित।
प्राणों को तड़पाने वाली हुंकारों से जल - थल भर दे ,
अनाचार के अम्बरों में अपना ज्वलित फलीता भर दे।"

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