रविवार, 24 दिसंबर 2017

मौन ही लिखता हूँ

मेरा लिखा
मेरा कहाँ
जो जग समझ ले
या तुम ?
इतना सरल होता तो
लिखा ही नहीं जाता
और इतना सामान्य होता तो
लिखता ही नहीं ।
जगत के प्रपंच
माया के राग
मेरा रोना नहीं ।
इसमें मेरा होना भी नहीं ।
न शक्तिहीन
न दुखी या दीन,
ये अश्रु सस्ते नहीं जो
टिप टिप रिसे।
जो छूटा है
जो गुजरा है
जो बीता है
वो आम नहीं ।
कि जगत पुचकारे
कि मैं ये चाहूं ।
और इतनी फुर्सती दुनिया भी नहीं
कि सच में ही समझ लेती है
अंतस की अग्नि ।
मैं जानता हूँ
समझता हूँ
मौन धरता हूँ ,
कि मौन ही लिखता हूँ।

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