सोमवार, 18 दिसंबर 2017

ये स्मृतियां हैं ।

ये दुःख नहीं है
ये स्मृतियां हैं ।
उस विराट , अविजित व्यक्तित्व की
जो मेरे चारों तरफ
मेरे रोम रोम में 
कण कण में व्याप्त हैं ।
जहां जहाँ प्रकाश पड़ रहा है
और आँखों में रिफ्लेक्ट हो रहा है
वहां वहां पिता हैं ।
जहाँ प्रकाश नहीं है
वहां दीए के रूप में वे जगमगा रहे हैं ।
उन्हें कौन समझा?
कौन समझेगा ?
वो क्या थे ,
ये बखान ही नहीं किया जा सकता ।
ठीक ठीक वैसे ही जैसे किसी देवता या ईश्वर को
उसके रहस्य को नहीं समझा जा सकता ।
लीलाएं थी ।
संघर्ष में कैसे विजयी रहना है ,
धैर्य कैसे रखा जा सकता है ,
ज्ञान क्यों नहीं प्रचारित करना चाहिए ,
गीता आखिर क्या है
अपार अध्ययन और लेखन का ध्येय क्या होता है ,
स्वयं को सहज और सरल बनाए रखना
कितना आवश्यक है ,
मुसीबतों , परेशानियों और समस्याओं से होकर
जीना क्या है ,
उसका आनंद क्या है ,
जीवन का मूल स्वरूप कैसा है
ढेर ढेर सारा बोध अपने पूरे
जीवन से प्रकट करते हुए क्या उन तमाम लीलाधारियों ने जगत को नहीं दिया ?
किन्तु लिया कितनो ने ?
पिता और शास्त्रों में वर्णित सारे देवताओं ,ईश्वरो ,उनकी लीलाओं का
एक एक कृत्य समान सा अनुभव हो रहा है ।
ऐसे विराट पुरुष को
मेरे शब्द कभी व्यक्त नहीं कर सकते ।
वो अंतर्मन में बह ही सकते हैं ।
बह भी रहे हैं , और इसी बहाव में खुद को निश्चिन्त छोड़ दिया है ।
जागतिक सोच से परे पिता का विराट व्यक्तित्व
कृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड दर्शन का पर्याय ही है ।
वो यशोदा सौभाग्यशाली थी ,
कितनी थी
इसका भान मेरे लिए अब आसान है
क्योंकि मैं जान पाया हूँ इतना तो कि
मेरे कृष्ण , मेरे राम , मेरे पिता
सब एक ही तो रहे ।

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